Friday, June 12, 2009

करुण कन्या का आतंक और राजू का अवतरण

सड़क चलते आदमी को यह बिल्कुल नजर नहीं आता। आजमगढ़ में शिवमूर्ति चौराहे के पास लाल डिग्गी बंधे के नीचे एक रास्ता झटकू पहलवान के अखाड़े की तरफ गया है। इस अखाड़े के बगल में ही ढूह जैसी जगह पर एक गणेश मंदिर है। शिब्ली कॉलेज में दाखिले के बाद पिताजी मुझे इसके महंथ के पास लिवा ले गए। महंथ जी चौक के पास एक कटरे के मालिक थे और लंबी चिलम से गांजा पीते थे। इस मंदिर की एक कच्ची कोठरी रहने के लिए आजमगढ़ में शायद सबसे सस्ती जगह थी- सन इक्यासी में तीस रुपये महीने किराये वाली। लेकिन पिताजी की दिलचस्पी मुझे यहां रखने में इसलिए ज्यादा थी कि मैंने यहां रहकर रेगुलर रियाज नहीं किया तो भी कम से कम पहलवानों की संगत में तो रहूंगा।

इस मंदिर की अनेक स्मृतियां हैं, जिनमें से एक का जिक्र मैंने बहुत पहले इसी जगह किया था। तनहाई और गुंडई, आरती और लंठई का यहां अद्भुत समागम था। लेकिन सुबह-शाम की इसकी चहल-पहल मेरे लिए नहीं थी। तेरही इंटर कॉलेज के भोजपुरी मीडियम से निकल कर सीधे अंग्रेजी मीडियम की पढ़ाई मेरी जान लिए हुए थी और खाना बनाने का तजुर्बा न होने के चलते कोठरी में रहने का आधे से ज्यादा वक्त खाना बनाने में ही निकल जाता था। रोज बुरादे की भट्ठी भरना, एक पाव आटा सान कर उसकी रोटी और दो नेनुए या एक लौकी छील कर उनकी सब्जी बनाना। ऊपर से महंथ के लड़के की लुच्चई, जो लगभग हर सुबह चार में से एक या दो रोटी खाकर सुदामा पर कृष्ण जैसा एहसान कर जाता।

ऐसे में एक दिन बड़ा अजीब लगा जब महंथ जी की एक अत्यंत करुण, अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी टाइप मिजाज वाली भतीजी पता नहीं क्या देने या लेने मेरी कोठरी में आई और इसके बहाने जोर से मेरी हथेली दबाती चली गई। मेरे लिए इस अनुभव में अभूतपूर्व, अद्वितीय या अनुपम जैसी कोई बात नहीं थी, लेकिन यह इतना अजीब, अटपटा और गिजगिजा जरूर था कि मेरी आत्मा सटक गई। सारे रास्ते बंद थे। विकल्प की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। महंथ की भतीजी के बताए रास्ते पर चलने का मतलब था बलात्कार का शिकार होना, क्योंकि उसे देखते ही मुझे करुणा की हीक आती थी और उससे किसी तरह के लगाव का तो कोई सवाल ही नहीं था।

लेकिन इस रास्ते को छोड़ने का मतलब खतरनाक था। सीधी-सादी दिखने वाली जो लड़की जरा सी आड़ पाते ही इतनी बोल्ड हो सकती थी वह खुद को तिरस्कृत पाकर मेरा जीना हराम कर सकती थी। उसका एक छोटा सा आरोप भी मुझे न सिर्फ इस मंदिर से निकलवाने के लिए काफी होता, बल्कि मेरे पहलवान पिता की नाराजगी शायद मेरी पढ़ाई छूटने की भी वजह बन जाती। इसे कोई चाहे तो लड़कों के बजाय लड़कियों की आम मनःस्थिति के करीब बता सकता है, लेकिन अब क्या करें, जो था सो था। संकट इतना गहरा हो गया कि मैं अपनी कोठरी में जाने से कतराने लगा।

इसी दौर में दिल्ली से वेद प्रकाश उर्फ राजू नाम के एक सज्जन आजमगढ़ पधारे, जिनकी इंटरमीडिएट में कंपार्टमेंट आ जाने के वजह से राजधानी के किसी कॉलेज में दाल नहीं गल पाई थी। उनकी सबसे अच्छी बात यह थी कि कॉलेज और पढ़ाई का उन पर कोई दबाव नहीं था। अगले डेढ़ वर्षों के समय को वे अपने लिए वनवास की तरह ले रहे थे और इस दौरान किसी लक्ष्मण की तलाश उन्हें बड़ी शिद्दत से थी। मेरा संपर्क दिल्ली में उन्हें मेरे बड़े भाई से मिला था जो उस समय से लेकर आज तक इस लोहे के शहर से अपनी रोटी निकालने के प्रयास में जुटे हैं।

राजू बाबू ने मुझसे मिलने के बाद जो पहला काम किया, वह था मेरी मुर्दनी के लिए मेरी लानत-मलामत। उन्होंने मुझे बताया कि कॉलेज की पढ़ाई कोठरी में रहकर किताबें घोटने से नहीं होती। इसके लिए सिनेमा देखना, क्लास बंक करना और अच्छी-अच्छी सूरतों से आंखें सेंकना भी जरूरी है। नतीजा यह हुआ कि अगले एक दो हफ्तों में हम लोगों ने डिलाइट में नसीब से शुरू करके आजमगढ़ के तीनों सिनेमा हॉलों में लगी फिल्में डेढ़ रुपये वाले थर्ड क्लास में बैठ कर देख डालीं। इससे सबसे बड़ा फायदा मुझे यह हुआ कि उस करुण कन्या के आतंक से छुटकारा मिल गया।

इस बीच राजू भी शहर के एक निर्माणाधीन मकान में अपने मामा के साले के यहां रहते-रहते थक गए थे। लिहाजा हम लोगों ने लंबी छलांग मारी और शहर के दूसरे छोर अराजीबाग में नब्बे रुपये किराये वाला एक कमरा ले लिया। इससे मेरा किराये का खर्चा डेढ़ गुना बढ़ गया लेकिन आगे से राशन-पानी में राजू का बड़ा योगदान देखते हुए मैंने यह बोझ बर्दाश्त करने का फैसला कर लिया। पाठक गण क्षमा करें। मेरा इरादा अपना संस्मरण लिखने का नहीं, राजू के बारे में बात करने का था, लेकिन ऑफिस के बाहर खड़ा बगैर ताले का मेरा स्कूटर कोई उठा न ले गया हो, यह देखने के लिए फिलहाल इस पोस्ट को यहीं बंद करना जरूरी है। राजू के बारे में अब कल, या अगली पोस्ट वाले दिन बात करेंगे।

5 comments:

स्वप्नदर्शी said...

" आपके दोनों संस्मरण पढ़े.
और इसे रेट्रो रेस्पेक्ट मे देखना सुखद लगता है। कई साल पहले मेरी कॉलेज के जमाने की एक दूर की दोस्त ने एक कविता लिख भेजी थी "गुजराती " मे , पुराने दिनों को याद करते हुए। कविता कही खो गयी है खानाबदोशी मे, पर उसका भाव यही था, कि "अंधेरे पुराने दिन भी दूर से देखने पर चांदनी मे नहाए दिखते है, और उनकी भयावायता उनके बीत जाने पर खत्म हो जाती है।" पर जो भी हो वों हमारे बनने बिगड़ने का हिस्सा ज़रूर है।

Unknown said...

umda
rochak
achhi post
badhaai !

दिनेशराय द्विवेदी said...

राजू तक पहुँचने में बहुत बाधा है। पहले कन्या और अब स्कूटर खैर इंतजार करते हैं।

Ashok Pande said...

अमैं अइसा रोज पढ़ने को कब मिलेगा चन्दू बाबू?

जबर!

अनिल कान्त said...

padhkar bahut achchha laga