Wednesday, June 10, 2009

दोस्तों की याद में

कल शाम घर लौटते हुए एक मोड़ पर स्कूटर जवाब दे गया। मकेनिक खोज कर बनवाने बैठा, तभी फोन की घंटी बजी। अनजान नंबर। फोन उठाया तो किसी ने पूछा, मिश्रा जी का नंबर है? मैंने कहा, जी मैं चंद्रभूषण बोल रहा हूं, आपको किससे बात करनी है? फिर सीधे- अरे साले मैं नीरज बोल रहा हूं, नीरज अग्रवाल। मैंने कहा, कौन नीरज? अरे, आजमगढ़, शिब्ली कॉलेज भूल गए? फोन में अंग्रेजी गाना लगाए हो पंडितऊ, सब समझ रहे हैं।

शिब्ली कॉलेज में नीरज ठीक-ठीक मेरा दोस्त तो नहीं था लेकिन मेरे एक दोस्त का दोस्त जरूर था। किसी संयोग की तरह मेरा रूम पार्टनर और आजमगढ़ के मेरे सारे दोस्त बायो में थे जबकि मैं अकेला मैथिया रहा था। नीरज और मेरे साझा दोस्त थे पंकज वर्मा, जो आजकल लोकल कोर्ट में दीवानी के ठीकठाक वकील हैं। हम लोग 1983 तक, यानी बी.एससी. पूरा होने तक एक साथ थे लेकिन पंकज से आखिरी मुलाकात को भी अब करीब पंद्रह साल गुजर चुके हैं।

गांव से जैसे-तैसे शहर पढ़ने गए लड़कों के हमारे सर्किल में पंकज अकेला मध्यवर्गीय इलीट था। उसी के जरिए हम लोगों को थोड़ी-थोड़ी शहर की हवा लगी। पंकज ने मुझे शहरी बनाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। बैडमिंटन खेलने से लेकर डांस करने तक कई सारे गुर सिखाने के प्रयास किए, यहां तक कि किसी से प्रेम कराने की कोशिश भी की। अब इसका क्या करें कि जिसके लिए यह कोशिश की गई थी, उसका इरादा प्रेम करने का था ही नहीं। पंकज को मैंने इस बारे में सिर्फ इतना सा राज बताया था कि एक शाम मैं उसकी गली से होता हुआ सड़क पर पहुंचने को था कि उसने नई-नई आई फिल्म लव स्टोरी का गाना गुनगुनाना शुरू कर दिया- ए लड़का जरा सा दीवाना लगता है........

फिर क्या था, पंकज बाबू ने आगे का किस्सा खुद ही बना लिया और कहा कि हम तुम्हें गाड़ी का कोई पुराना-धुराना मॉडल तो नहीं लगने दे सकते- एलएमएल वेस्पा नहीं तो चेतक बजाज बनाकर ही छोड़ेंगे। यह कोशिश परवान नहीं चढ़ी, लेकिन कुछ बुनियादी बातें इस दौरान मेरी समझ में आ गईं- जैसे यह कि पैजामे में शर्ट खोंस कर पहनना सिर्फ खुद को ठीक लगता है, दूसरों को तो बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। और अगर संभव हो तो हवाई चप्पल के ऊपर ओवरकोट पहन कर और ऊनी टोपी पर मफलर का मुंड़ेसा बांध कर कॉलेज में क्लास करने नहीं जाना चाहिए।

पंकज का वश चलता तो वह मुझे फैंसी चश्मा भी पहना देता लेकिन चश्मा बदलने की मेरी औकात नहीं थी। जो फ्रेम कानपुर में चाचा जी ने बनवा कर दिया था, उसी में पॉवर के मुताबिक शीशा बदलता रहे, तो भी चेहरे पर काफी रौब लाया जा सकता है- ऐसा मैंने पंकज को समझाया।

आजमगढ़ में रहने को लेकर मेरे और राजू के बीच यह समझौता था कि कोठरी का किराया दोनों आधा-आधा देंगे, गेहूं, चावल और दाल घर से राजू लाएंगे जबकि मैं गेहूं की पिसाई दूंगा और बाजार से सब्जी खरीद कर लाऊंगा। फीस और किताब-कॉपी मिलाकर महीने में यह करीब सौ रुपये का खर्चा बैठता था। इतना पैसा दे पाने की हालत पिताजी की थी नहीं, लिहाजा मैं राजू को यह कह कर टरकाए रहता था कि साल के अंत में जैसे ही स्कॉलरशिप मिली, वैसे ही उनका सारा कर्जा उतार दिया जाएगा।

खेती-किसानी से मजबूत राजू की भी नगदी के मामले में अपनी सीमाएं थीं लिहाजा हर हफ्ते इतवार के दिन हम दोनों सुबह से ही पंकज के यहां जाकर जम जाते थे कि उसके घर पर अगर दोपहर का खाना नहीं, कायदे का नाश्ता भी मिल जाए तो कम से कम एक दिन का खर्चा तो बच ही जाएगा। डर की बात सिर्फ एक थी। पंकज के वकील पिता कान से लगभग बहरे थे और मामूली बातें भी इतने करख्त लहजे में इतने जोर से कहते थे कि हमें लगता था, यह सब वे हमें भगाने के लिए कर रहे हैं।

बी.एससी. का रिजल्ट आने के बाद आजमगढ़ में ही करीब एक साल मुझे और रहना पड़ा, लेकिन बिना किसी आपसी घटना के, इस इतनी सी अवधि में ही पंकज इतने अजनबी हो गए कि बस एक या दो बार उनसे मेरी मुलाकात हो पाई- वह भी बिल्कुल ठंडी और बेजान। दरअसल, कॉलेज की दोस्तियों की यही सीमा होती है कि जिंदगी के तूफानों का सामना होते ही वे मुरझा जाती हैं। अब लगता है कि इससे उनका महत्व कम नहीं होता क्योंकि किसी फूल की अच्छाई या बुराई नापने का पैमाना यह नहीं हो सकता कि वह आग में पहुंच कर भी खिला रह पाता है या नहीं।

नीरज के फोन ने मुझे छब्बीस साल पहले वाले आजमगढ़ के समय में घुमा दिया। दोस्तों को याद करने का मन हो रहा है। मौका लगा तो उन पर कुछ पोस्टें लगातार डालूंगा।

6 comments:

Arvind Mishra said...

रोचक लगा यह संस्मरण पढ़ना चंद्रभूषण जी ,आपने विज्ञान कथाओं /कथाकार और शायद चार्ल्स डार्विन पर कुछ लिखाथा -कृपा कर लिंक भेज सकेंगें ?

बसंत आर्य said...

आपके उन संस्मरणो का इंतजार रहेगा

अनूप शुक्ल said...

बेहतरीन पोस्ट! फोन में अंग्रेजी गाना लगाए हो पंडितऊ, सब समझ रहे हैं। पढ़कर मजा आ गया। पोस्ट पढ़कर अखिलेशजी की कहानी चिट्ठी फ़िर याद आ गयी।

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर पोस्ट। हमें भी जब कभी इस तरह के पुराने लोग मिलते हैं तो अच्छा लगता है। अक्सर हम ही पहचानते हैं।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

बहुत अच्छे ढंग से लिखी गयी आत्मीय पोस्ट है भाई. पढ़ना शुरू किया तो आखिर में ही रुका. यह सिलिसला बना रहे.

ravindra vyas said...

यह पोस्ट पढ़कर मैं भी कच्चे में उतर गया !