Saturday, April 5, 2008

हो ही जाय जात पर बात

इधर के सालों में बौद्धिकों के बीच जब जात पर बात होती है तो दो-तीन बिल्कुल अलग-अलग चीजों का घालमेल हो जाता है। पता नहीं ऐसा सिर्फ कमअक्ली से पैदा हुए कन्फ्यूजन के चलते है, या सचेत ढंग से ऐसा करके कुछ लोग अपने कमजोर पहलुओं पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं।

एक मामला है जातीय उत्पीड़न का, जिसकी बुनियाद ग्रामीण खेतिहर अर्थव्यवस्था में है और किसी न किसी रूप में उसके अवशेष शहराती ढांचे में भी बढ़े चले आ रहे हैं। यह मुख्यतः दलित और अत्यंत पिछड़ी जातियों की चिंता का विषय है, और पिछले कुछ वर्षों में आए दलित उभार के बावजूद इसमें ज्यादा बदलाव नहीं आया है।

दूसरा है, अवसरों की समानता का, जिसे कभी भागीदारी तो कभी दावेदारी का नाम दिया जाता है। जमींदारी उन्मूलन और हरित क्रांति के असर में उभरी ताकतवर पिछड़ी जातियां पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विविध सोपानों और सरकारी नौकरियों में दखल के लिए इस नारे के पक्ष में गोलबंद होती आई हैं। इन जगहों पर पहले से काबिज ऊंची जातियों के ताकतवर लोग सबसे ज्यादा नफरत इसी नारे से करते हैं, चाहे वह आरक्षण के नाम पर सक्रिय हो या किसी और नाम पर।

तीसरा है, अंग्रेजों के जमाने से खासकर 1930 के दशक में सरकारी नौकरियों का अवसर खुलने के बाद से लगातार ठोस रूप लेने वाली जातीय पहचानों का। यह पूरी तरह ऊंची जातियों के दायरे में सीमित समस्या है, जिसका विस्तार अब धीरे-धीरे अन्य जातियों तक हो रहा है। इस तरह के टकराव सबसे पहले ब्राह्णणों और कायस्थों के बीच शुरू हुए, फिर इस सूची में कहीं भूमिहार, कहीं क्षत्रिय तो कहीं दोनों शामिल हुए। दक्षिण में यह प्रक्रिया साठ के दशक तक रेड्डी, कम्मा, लिंगायत, वोक्कालिगा, चेट्टियार आदि तक सीमित रही, फिर उसमें नाडार, कापू, मडिगा आदि निचली जातियां धौंक के साथ शामिल होने लगीं, जबकि उत्तर के ज्यादातर राज्यों में आज भी यह लड़ाई ऊंची जातियों तक ही सीमित है।

जात से जुड़ी इन तीनों किस्म की लड़ाइयों के अपने-अपने ढोल हैं तो अपने-अपने पोल भी हैं। मसलन, जातीय उत्पीड़न का सवाल दलितवादी धाराएं जब-तब उठाती हैं, लेकिन उनकी मुख्यधारा नौकरीपेशा दलितों या दलित नौकरशाहों की है, लिहाजा 1993 में जब इलाहाबाद में कुर्मी भूस्वामियों ने एक दलित स्त्री को नंगा करके पूरे गांव में घुमाया, या पिछले साल गोरखपुर में ब्राह्मण लुच्चों ने दलित लड़कियों के साथ बलात्कार किया तो इन दोनों ही मामलों में उठी आवाजों को कुमारी मायावती ने अपनी सरकार गिराने की साजिश करार दिया। जातीय उत्पीड़न के सवाल पर जमीनी नेतृत्व पहले भी और आज भी नक्सली धाराएं ही कर रही हैं, जिन्हें इस विमर्श का हिस्सा ही नहीं माना जाता।

'भीख नहीं भागीदारी, सत्ता में हिस्सेदारी' के नारे के साथ जनता दल की सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल का फैसला लिया लेकिन पिछड़ावादी धाराओं का दोगलापन दो स्तरों पर जाहिर हुआ। सरकारी नौकरियों में वाजिब पिछड़े उम्मीदवारों का कोटा कहीं भी नहीं भरा गया, लेकिन किसी भी पिछड़े नेता ने इसके विरुद्ध आजतक आवाज नहीं उठाई। सबसे बड़ा घपला इस मामले में ताकतवर पिछड़ी जातियों ने कमजोर पिछड़ी जातियों के साथ किया। इसका इलाज बिहार में कर्पूरी फार्मूले के रूप में खोजा गया था, जहां यादव-कुर्मी-कोइरी के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों के लिए अलग से आधे से ज्यादा आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। यह सवाल अति पिछड़ी जातियों के लोग जब भी उठाते हैं, उन्हें पिछड़ा विरोधी करार दिया जाता है।

नब्बे के दशक में पिछड़ा और दलित धाराओं के उदय से तीसरी, यानी ऊंची जातियों की आपसी लड़ाई कुछ कम सी हो गई है, लेकिन मीडिया जैसे सवर्ण बहुल रोजगार क्षेत्रों में जातियों के गुट बाकायदा सक्रिय रहते हैं। आम तौर पर अयोग्य लेकिन धनबल या बाहुबल से ताकतवर लोग इन गुटों का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने गुट की नजरों में अप्रतिम प्रतिभाशाली होने का आनंद उठाते रहते हैं। अपनी-अपनी जातियों के ही प्रतिभाशाली और लिपिर-चिपिर में यकीन न रखने वाले लोगों के प्रति इनका शत्रुभाव जगजाहिर होता है और उन्हें बर्बाद करने में ये कोई कसर नहीं छोड़ते।

एक स्तर पर ये जातीय टकराव की ये तीनों ही किस्में विचारधारा के पतन और अवसरवादी सोच के उदय का प्रतिनिधित्व करती हैं। भारत की जमीन पर खड़े होकर एक आधुनिक भारतीय समाज का स्वप्न देखने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर का लिखा और किया इन तीनों ही धाराओं का निषेध करता है। अपने लेखन और कर्म में वे न सिर्फ अलगाव और नफरत पर टिकी मनुवादी व्यवस्था का निषेध करते हैं बल्कि अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देते हुए क्रमशः एक जातिहीन भारतीय पहचान की रचना का प्रयास भी करते हैं। यह सचमुच अफसोस की बात है कि आज खुद को अंबेडकरवादी कहने वाले ज्यादातर लोगों के एजेंडा पर भी जातिविहीन समाज बनाने की बात कहीं नहीं है।

डॉ. राम मनोहर लोहिया की विचारधारा का हाल और भी बुरा है और खुद को उनका वैचारिक वारिस बताने वाले लोग तो खुद सामाजिक वर्चस्व का नया व्याकरण गढ़ने में जुटे हैं। अतार्किक सवर्ण वर्चस्ववादियों की बात ही छोड़िए। ये तो अपनी जाति के लोगों के भी सगे नहीं हैं, जिसका हवाला देकर बाभन-ठाकुर-लाला-भुइंहार के आपसी महाभारत ये निरंतर लड़ते रहते हैं। इनसे विचार से निपटने की उम्मीद बेकार है। आश्चर्य अलबत्ता इस बात पर होता है कि उत्तर प्रदेश जैसी विचारधारा की कड़ाही में दलितों और ब्राह्मणों का शुद्ध जातिवादी मुहावरों से संचालित होने वाला समीकरण भी ब्राह्मणवाद-विरोधी बौद्धिकों के वैचारिक कन्फ्यूजन को सुलझाने में कोई मदद नहीं कर सका।

महानुभावों, आपके मुहावरे आज भी 1993 के बसपा-सपा समीकरण से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, जबकि जमीन पर दलितवादी और पिछड़ावादी धाराएं एक-दूसरे से इस कदर कटाजुद्ध में उतरी हुई हैं कि उन्हें घोर सवर्ण वर्चस्ववादी ब्राह्मण और ठाकुर नेताओं को अपने झंडे पर टांगकर आगे बढ़ने में भी कोई हिचक नहीं हो रही है!

कृपया गौर करें कि आप किस चिंतन प्रणाली के तहत किसके खिलाफ और किससे बहस कर रहे हैं। आप यूरोप-अमेरिका की महाविमर्श (ग्रैंड डिस्कोर्स) प्रणाली की एक सतही नकल भर करने की कोशिश कर रहे हैं। समाज के कमजोर तबके- दलित खेत मजदूर, जमीन और पूंजी दोनों से वंचित अति पिछड़े, हर तरफ से लात खाकर आंधी में पत्ते की तरह उड़ रहे गरीब सवर्ण, बिला वजह मार दिए जाने लूट लिए जाने से डरे हुए किसी तरह अपना अस्तित्व बचाए रखने में जुटे मुसलमान- इन्हें आपकी मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है।

आप इनकी लड़ाई न लड़ सकें तो कम से कम धीरज के साथ इनकी बात ही सुनना सीख लें। ये वक्त की दौड़ में पिछड़े हुए, मार खाए लोग हैं। राजनीति में इनके लिए कोई जगह नहीं है, सिर्फ इनके नाम पर राजनीति होती है। ये चुप रहते हैं या बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। आपका असली गुस्सा जिनके खिलाफ है, उन्हें खुद इन्हें कच्चा चबा जाने में कोई हिचक नहीं होती।

क्या हम इस ग्रैंड डिस्कोर्स को थोड़ा टोन-डाउन करने की कला सीख सकते हैं? मसलन, कुछ ऐसा कि बात भले ही देर से असर करे, लेकिन वह ज्यादा सच्ची, ज्यादा समावेशी हो। डॉ. अंबेडकर की पढ़ाई-लिखाई अमेरिका में हुई थी और नस्लवादी उत्पीड़न की प्रतिक्रिया स्वरूप उपजी अश्वेतवादी विचारधाराओं से भी वे अपरिचित नहीं थे।

क्या आप बताएंगे कि उनके बजाय जेम्स स्टुअर्ट मिल जैसे उदारवादी ब्रिटिश चिंतक की विचारधारा को ही उन्होंने अपने लिए हमेशा अपने वैचारिक ध्रुव का दर्जा क्यों दिया? क्यों चीजों को स्याह-सफेद में देखने का आसान तरीका अपनाने के बजाय वे भारतीय समाज को उसकी पूरी जटिलताओं में समझने के लिए संस्कृत ग्रंथों का महासमुद्र खंगालने निकल पड़े? या फिर यह कि जीवन भर ब्राह्मणवाद के विरोध में लड़ने के बाद उन्होंने एक ब्राह्मण स्त्री से विवाह करके अपने सबसे घोर समर्थकों को भी नाराज करने का जोखिम क्यों उठाया?

मित्रों, ऐसा इसलिए था क्योंकि वे अपनी चिंताओं, अपने जीवन, अपने कर्म और अपने लक्ष्यों को लेकर जेनुइन थे। आज के दलितवादी, पिछड़ावादी या बकवादी 'चिंतक' अगर हो सके तो कभी अकेले में अपने पूरे किए-धिए पर ठंडे दिमाग से विचार करें और तय करें कि जेनुइनिटी के इस अकेले, पहले और अंतिम पैमाने पर वे कहां ठहरते हैं।

18 comments:

अनिल रघुराज said...

सोलह आने खरी बात। जाति के मसले की हकीकत को समझने का नया आधार मिला।
लेकिन क्या कीजिएगा, कुछ बकवादियों को तो हुआं-हुआं ही करना है। उन्हें किसी को मसले को समझना ही नहीं है, बस हल्ला मचाना है।

azdak said...

बहुत सही, चंदू.. ग्रेट.. उम्‍मीद है इसे ज़्यादा से ज़्यादा लोग पढ़ें!

अनामदास said...

बिल्कुल सही और संतुलित बात.

अजित वडनेरकर said...

बल्ले बल्ले चंदू भाई....

Arvind Mishra said...

हमे अपने विचार और आचरण से जेनुयिन रहना चाहिए . ...विचारोत्तेजक.....

अफ़लातून said...

जाति के मामले में बौद्धिकों द्वारा किन तीन मसलों पर भ्रम पैदा होता है यह बखूबी बता दिया- शिवपति से लगायत आरक्षण तक । सामाजिक नीति का लक्ष्य स्पष्ट न होने पर यह दिक्कतें आती हैं । वैसे में स्वार्थ के अनुरूप आंशिक नीति पर जोर दिया जाता है , समग्र नीति को भुला दिया जाता है ।सामाजिक नीति का लक्ष्य जाति-प्रथा का विनाश होना चाहिए ।सवर्ण-अवर्ण विवाह करने वाले जोड़ों का सामाजिक सम्मान कौन समूह कर रहे हैं ?
'आरक्षण साध्य नहीं साधन है' - आम तौर पर यह साफ़ नहीं होता।
१९३० से काफ़ी पहले जब कार्नवालिस द्वारा अंग्रेजों का प्रशासनिक ढाँचा स्थापित हुआ तब देश के कई इलाकों में पहली बार सवर्ण इस तंत्र का हिस्सा बनने पहुँचे । उसके पहले इन इलाकों में सवर्ण नहीं हुआ करते थे।
अति-पिछड़ों और दलितों का नेतृत्व सिर्फ़ उन्हीं राजनैतिक धाराओं से उभरा जहाँ दल की नीचे से उपर तक की कमीटियों में विशेष अवसर उसूलन दिया जाता था ।

Rajesh Roshan said...

जाति को लेकर एक क्लीअर पिक्चर देने की कोशिश की है आपने. सच में जेनुअनेटी की भारी कमी है. बकवादी लोग ज्यादा भरे हैं
Rajesh Roshan

Unknown said...

aapne uchit likha hai, aisa nhi hai ki baki log is tthy se aprchit honge lekin jhuthe, mkkar aur glij logon ke bkvad ka aakhir koi kya krega...ve thothe gal bjate rhenge...jb jhuth apne hjaro munhon se hunva huvan kre to schi aavaj, sachhi bat nkkarkhane ki tooti bnkr hi rh jati hai chandoo bhaiya...

Unknown said...

बहुत सधा - जोर दे कर पढ़ा - "समाज के कमजोर तबके- दलित खेत मजदूर, जमीन और पूंजी दोनों से वंचित अति पिछड़े, हर तरफ से लात खाकर आंधी में पत्ते की तरह उड़ रहे गरीब सवर्ण, बिला वजह मार दिए जाने लूट लिए जाने से डरे हुए किसी तरह अपना अस्तित्व बचाए रखने में जुटे मुसलमान- इन्हें आपकी मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है।" इसमें पूरा मसौदा भरा है - अन्त्योदय - या जो भी नाम दें - की संभावना जब है अगर यही तबका - राजा और रानी, और नवाब, खैरख्वाह मालिकान को थोड़ा किनारे करे - एकजुट हो ऐसे नेताओं को लाये जो उठ कर भी बने रह सकें - अगले चुनाव की जुगत में सरपट विरोधाभास न बन जाएँ - ऐसा हो सकता है क्या ? इन्हें अपनी मदद की भी जरूरत है - पुराने सारे ऐसे बने काडर - लाल, हरे, नीले अंततः नहीं चले - और अब ? - the cynic in me says we are back to the fabian myth - power has long won over purpose and principles.

चंद्रभूषण said...

मनीष जी, हकीकत यही है, लेकिन सत्ता की दुरभिसंधियों के बावजूद लोग बचे रह जाते हैं, उनकी मुश्किलें भी बची रह जाती हैं। गेटे का सहारा लें तो 'विचार धूसर पड़ जाते हैं, जीवन का वृक्ष फिर भी हरा रहता है।' गलत को गलत और सही को सही कहने वाले कुछ लोग बचे रहे तो इस जीवन-वृक्ष से नए विचारों, नए आंदोलनों की कोंपलें फूटकर रहेंगी- आज नहीं तो कल!

Sarvesh said...

Very impressive Chandrabhushan jee. This type of view anyone gets when he/she goes above jaat paat and sees from top. It will be a good lesson for all those who are writing on jaat-paat these days.

Anonymous said...

http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/
chandrabushan ji aap kii koi raay is chittah per nahin milii
aap kaa email kahin uplabdh nahin tha so kamen tmae bhej rahee hun

Anonymous said...

aap sae email per bat karna chhtee hun
agar sahii samjhey to apnaa id is mail per bhej dae
rachnasingh@gmail.com

Unknown said...

आज़ादी के बाद दलित उद्धार के नाम पर बहुत कुछ किया गया. लेकिन यह सब कुछ सब दलितों तक नहीं पहुँचा. कुछ दलित नेताओं ने इसे बन्दर बाँट बना दिया. लालू, पासवान, मायावती और ऐसे अनेक नेता केवल अपना उद्धार करने में ही लगे रहे, और आज भी कर रहे हैं. मायावती तो कुछ आगे ही निकल गईं. जिनका उद्धार करने की कसम खाई जाती थीं उन्हीं से उपहार ले लेकर अपनी तिजोरियाँ भर लीं. "सत्ता में भागीदारी" के नारे लगवा कर अपनी सत्ता के रास्ते आसान बना लिए और आम दलित वहीं का वहीं रह गया. मेरे विचार मैं, आज़ादी के बाद दलितों के सब से बड़े शत्रु उन के अपने नेता हैं. जब तक इस सच्चाई को माना नहीं जाता दलित बस केवल इस्तेमाल किए जाते रहेंगे.

Anshu Mali Rastogi said...

चंद्रभूषणजी, जरा इस पर भी तो कुछ बोलिए। इंतजार रहेगा।
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जाति पर चल रही इसी बहस में मैंने रवीश से एक प्रश्न किया था कि मीडिया में व्याप्त जातिवाद पर उनका क्या कहना है? इसका उत्तर अभी तक मुझको रवीश से नहीं मिल सका है। शायद मिलेगा भी नहीं। रवीश इस मसले पर मुंह इसलिए नहीं खोलेगें क्योंकि इससे उनके आका नाराज हो सकते हैं। कहीं लेने के देने न पड़ जाएं।
मीडिया में जातिवाद भी है और सामंतवाद भी। इस जातिवाद और सामंतवाद की चिरौरी में वो लोग भी शामिल हैं जो खुद को बड़ा प्रगतिशील कहते-बताते हैं। समाजसुधारक का चोला पहनकर मीडिया हम पर यह जतलाने की कोशिश करता है कि हम ही सत्य और पाक-साफ हैं बाकी सब चुतिए और गधे हैं। मीडिया जाति और लिंग के मसले पर दूसरों पर आरोप लगाते हुए हमें बहुत जागरूक लगता है मगर अंदर की हकीकत कुछ और ही है। रवीशजी आप ही बता दीजिए।
मेरा एक सवाल और है आखिर मीडिया में गोरे और चिकने चेहरों की बपौती ही क्यों है? खासकर लड़कियों के मामले में मीडिया और मीडियाकर्मी दोनों ही बेहद रंगीले रहते हैं।
रही बात इस सर्वे की तो सब बकबास है। दुनिया को चुतिया बनाने के लिए कुछ तो चाहिए, ये ही सही। जिन्होंने ये सर्वे किया है पहले वो यह तय करें कि वो खुद कहां खड़े हैं? बिडंबना देखिए मीडिया के बीच पसरे जातिवाद पर सर्वे करने का वक्त इन महान आत्माओं के पास है मगर किसानों के मरने, गांव के बिखरने, खेती के सिमटने जैसे गंभीर मुद्दों पर सर्वे करने का समय इनके पास नहीं है। दरअसल ये गंभीर मुद्दे इन्हें न पैसा दिलवाएंगें न शौहरत का मजा।

दीपा पाठक said...

बढ़िया विश्लेषण चंदू जी।

चंद्रभूषण said...

अंशुमाली जी, मीडिया ढांचे की बीमारियां अनेक हैं, जिनमें जातिवाद तुलनात्मक रूप से बहुत छोटी चीज है। कभी इस विषय पर बात जरूर होगी, लेकिन अभी इस बारे में अपनी समझ को मैं पर्याप्त नहीं समझता। मेरे ख्याल से मीडिया के लिए यह एक ट्रांजिशन फेज है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो बहुत ही ज्यादा कन्फ्यूज्ड स्थिति में है। मेरे दिमाग में टुकड़े-टुकड़े कुछ बातें हैं। कड़ियां जुड़ने लगें तभी इस विषय में कुछ कहना उचित रहेगा।

Priyankar said...

बेहद संतुलित विश्लेषण .