Thursday, March 19, 2020

बड़बड़ाना

बौखलाहट में गद्य ही हो पाता है
गर्दन झुकाए खुद से बड़बड़ाना
जिनसे घनिष्ठता है वे पूछ बैठते हैं-
‘अकेले बैठे तुम्हारे होंठ हिलते हैं
उंगलियां कोई नक्शा सा खींचती हैं
कौन सा कबित्त बांचते रहते हो?’
जवाब में अचकचाना भर हो पाता है
काश, यह वरदान मुझे हासिल होता
हर तरफ से गालियां बरस रही हों
जवाब में कोई कविता निकल रही हो
ऐसा हो सकता है, बशर्ते मन मान ले
कि गरियाया जाने वाला कोई और है
मुझसे तो ऐसा कभी हो नहीं पाएगा
जिस ताना-भरनी से मैं बुना गया हूं
उसमें किसी भले इंसान पर पड़ी लाठी
सोते-जागते मुझ पर कई बार पड़ती है
मन ठहरने के लिए प्रतिकार चाहिए
जो कहीं से भी नहीं आता, नहीं आता
अपने हिस्से की राहत मुझे नहीं चाहिए
अपने हिस्से की हवा, पानी और जमीन
न ऐसा कुछ होता है, न मुझे वह चाहिए
इस धरती की सारी खुशियां, सारा दुख
इस पर जन्मे हर शख्स के लिए साझा है
पूरा का पूरा, सारा-समूचा वह मेरा भी है
इस पूरेपन से ही मेरी कविता आती है
चाहे वह सिर्फ दो लाइन की क्यों न हो
कबूतर की उड़ान पर भी लिखूंगा कभी
तो यह सोचते हुए कि बिलरियागंज में
औरतें क्यों मार भगाई गईं रात दो बजे
जानते हुए कि यह खुद से बड़बड़ाना है

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