Saturday, October 19, 2013

रात की बात

बिजली के मोटे तार जैसी किसी चीज से बंधे हुए
पैरों की आजादी इतनी कि एक बार में एक ही फुट चल सकूं
और हाथों में पड़े हुए मोटे-मोटे चुल्ले
जैसे आगे कभी हथकड़ियां पहनाने के लिए
इन्हें यूं ही डाल कर छोड़ दिया गया हो

न जाने कितनी नींदें मैंने इसी तरह पार की हैं
अपने ही शहर में भटकते हुए रास्ता खोजते हुए
रात गुजर जाती है हर बार हर बार

कल रात की बात मगर कुछ और थी
तीसरे तल्ले पर किसी मीटिंग में जाना था
जबकि सीढ़ियां बीच-बीच में टूटी हुई थीं
दो-दो तीन-तीन पायदान एक साथ ढहे हुए

मैं कहीं से भागा नहीं था कि छिपने की जरूरत हो
वहीं का था और लोग मुझे अच्छी तरह जानते थे
लेकिन बंधा होना ही यहां सबके लिए मेरी पहचान थी
बाकी तो क्या खुद भी खुद को उसी तरह जानता था
जैसा कि इस वक्त मैं था

पता था कि बंधे पांवों और खड़खड़ हाथों से ही
यहां सब कुछ करना है
यह सब इतना सामान्य था कि मेरी कूदफांद देखकर
न कोई दुखी था न हंस रहा था
न मदद या दिलासा देने के लिए आगे आ रहा था

पता था कि सारी कोशिशों के बाद भी मीटिंग में पहुंच नहीं पाऊंगा
और मेरी गैरमौजूदगी में ही मेरे बारे में फैसला सुना दिया जाएगा
फिर भी पूरी रात सीढ़ियां चढ़ता रहा
सोचता हुआ कि रात बीत जाएगी और दिन गुजर जाएगा
तो अगली रात फिर शुरू करूंगा

और कोई तो रात कभी ऐसी भी आएगी
जब सही इमारत खोजकर उसमें घुस जाऊंगा
और सीढ़ियां चाहे जैसी भी हों उनपर चढ़ता चला जाऊंगा
और ऐन वक्त पर मीटिंग में पहुंच कर सारा किस्सा साफ कर दूंगा-
बस एक बार ऐसा हो जाए फिर फैसले की किसे पड़ी है 


2 comments:

Niraj Pal said...

इस पोस्ट की चर्चा आज सोमवार, दिनांक : 21/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -31पर.
आप भी पधारें, सादर ....नीरज पाल।

प्रवीण पाण्डेय said...

बद्ध मन है, बद्ध जीवन,
मन रही एक चाह उत्कट,
चीख़ कर बस यह बताना,
स्वर कभी बाधित नहीं थे।