Monday, May 27, 2013

रात के रंग

सोना सोना
इधर सोना उधर सोना
जिधर जाए नजर सोना
थिरकती आ गईं लो वक्त से पहले
मगर फिर छिप गईं सारी
सुनहरे पंख पहने नींद की परियां

सोना सोना
कहां सोना किधर सोना
धुआंती रात का आलम
उदासी साथ में लाया
कहां की खुश्कियां वीरानियां आईं
रहीं नपती गिलासों में
इधर घूमे उधर टहले
हुआ फिर क्या करें आओ चलें कुछ दूर
आधी रात बेगाना नगर देखें

कहीं टूटे हुए तारे
मिसाइल सी लकीरें खींचते जाते
कहीं गिरते हुए अरमान धरती पर
कहीं बिखरा हुआ मलबा धुआं देता अंधेरे में
कहीं चिथड़ा हुए सपने लिपटते पांव से आकर

कहीं भवितव्य है फैला हुआ सारे दिलासों पर
कहीं हैं कहकहे बीते जमानों के
कहीं दो ट्यूब सोते से कहीं दो बल्ब रोते से
अभी निकला अभी फिर डूबने को है
शहर की थरथराती धुंध के ऊपर
अंधेरी चौदवीं का चांद

नीचे सायबानों में
अजब सिहरन अंधेरे की
कि जैसे सलवटों से भर गया हो
रात का मखमल
कि जैसे मैकबेथ का खड्ग
मखमल में सरकता हो
डगर के स्याह छोरों पर
सलेटी कत्थई आभा सरकती है

चुप सब चुप
जगत चुप स्वर्ग चुप
आकाश चुप पाताल चुप
सब चुप

ऐसी आततायी चुप्पियों में
उल्लुओं की हूक से
यूं टूटता है रात का जादू
कि कोई क्या कहे किससे कहे
खुद से कहे तो क्यों

समय को पोंछता गंदले अंगोछे से
खलासी मैं जुआरी मैं कबाड़ी मैं
यही मैं हूं यही है आत्मा मेरी
सकल फैली हुई
घिरती हुई अपने अंधेरों से

इसी की मार खाई रोशनी में देखते दुनिया
चलो बैठें कहीं इतिहास की रूदालियों
हट कर कहीं बैठें
जहां पर खत्म हो
यह खत्म होने का निविड़ आभास

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

रात वही है, नींद नहीं है,
किसकी डोरी बँधी आज है

डॉ. मोनिका शर्मा said...

उद्वेलित करते भाव... ये भटकाव सबके हिस्से है सर