Monday, April 15, 2013

धीरे-धीरे शक्ल ले रही है 'बैठक'


पैसा पॉवर और करियर की होड़ में डूबे दिल्ली के सार्वजनिक आयोजन प्रायः पीआर एक्सरसाइज ही हुआ करते हैं। इनमें मेरी शिरकत कुछ अजीजों की श्रद्धांजलि सभाओं और कुछ समय पहले बल्ली सिंह चीमा की षष्ठिपूर्ति जैसे विरले सेरिमोनियल आयोजनों तक ही सीमित है। लेकिन इधर कुछ छिटपुट घरेलू बैठकों का  सिलसिला शुरू हुआ है, जिनमें शामिल होकर आत्मिक संतोष मिलता है। पिछले साल संजय कुंदन ने अपने घर एक छोटी सी कवि गोष्ठी रखी थी। वहां सुनी गई पचीस-तीस कविताओं में तीन-चार मन पर छपने लायक लगीं। कुछ बातचीत भी हुई लेकिन उसे त्वरित प्रतिक्रिया कहना ज्यादा ठीक होगा।

'बैठक' नाम के एक पाक्षिक आयोजन में पिछले दो सालों से शामिल हो रहा हूं। इस बारे में कभी लिखा नहीं, यह सोचकर कि कौन जाने किसी का कोई अजेंडा इसके पीछे हो। अचानक किसी दिन पता चले और फिर शर्मिंदा होना पड़े। लेकिन अलग-अलग मिजाज के लोग हैं, चर्चा के जरिये चीजों के कुछ अलग पहलू जानने और थोड़ा-बहुत दुख-सुख का साझा करने के लिए मिलते हैं। बातचीत के बाद अलग होने पर मन में कोई मलाल नहीं रहता। कौन लोग हैं, कैसे हैं, क्या बातें करते हैं, इसपर चर्चा कभी और। अभी तो कुछ विषयों का जायजा लें, जिन पर हमने बात की है या करने वाले हैं, और कुछ अन्य कामों का भी, जो बातचीत के अलावा हमने किए हैं।

बीते संडे हमने गॉड पार्टिकल पर चर्चा की। बीज वक्तव्य फिजिक्स के जानकार डॉ. प्रकाश चौधरी ने दिया, बाकी लोगों ने उनसे सवाल किए या अपने पास मौजूद जानकारियां सबके साथ शेयर कीं। अगली चर्चा नई पीढ़ी के अंग्रेजी रचनाकारों पर होने वाली है। कुछ लोगों ने अरविंद अडिगा, चेतन भगत, असीम त्रिवेदी, राहुल पंडिता वगैरह के कृतित्व पर बोलने का बीड़ा उठाया है। इससे पहले एक कविता-गोष्ठी हुई थी। एक बार पाकिस्तानी शायर अफजाल अहमद की कविताएं सुनी गईं और उनपर बातचीत हुई।

एक दिन  ईरान की कुछ फिल्में देखी गईं और उसके ठीक पहले भारत-ईरान सांस्कृतिक रिश्तों को हजार साल पहले से लेकर अभी तक के दौर में जानने-समझने की कोशिश की गई थी। एक के बाद एक हुए इन आयोजनों के पीछे कोई ईरानी रैकेट नहीं, सिर्फ बात-बात में निकल पड़ी एक बात थी। दो गोष्ठियां चित्रकला पर हो चुकी हैं- एक इंस्टालेशन के नए ट्रेंड्स पर और एक ठेठ पुरबिया मिजाज के चित्रकार लाल रत्नाकर के रचनाकर्म पर, जो बेसिकली गोष्ठी नहीं, एक सोलो चित्र प्रदर्शनी थी। एक आयोजन दिल्ली के प्रमुख सूफी स्थलों में जाकर उन्हें देखने-समझने का भी हुआ था, जिसमें मैं शामिल नहीं हो पाया।

जो लोग गोष्ठी से तात्पर्य किसी ऐसे आयोजन का लेते हैं, जिससे कोई ठोस निष्कर्ष निकलता हो या जिसके अंत में कोई प्रस्ताव पारित होता हो, उनके लिए बैठक का कोई सिर-पैर समझना मुश्किल होगा। इसमें शामिल होने वालों की विचारधाराएं भी काफी जुदा-जुदा हैं, हालांकि इनमें कोई भी सांप्रदायिक, जातिवादी या क्षेत्रवादी नहीं है। इस जमावड़े के साथ मेरी वाबस्तगी सूफिज्म पर बोलने के एक न्यौते के साथ हुई थी, जिसे चलते-चलते फोन पर मैंने गलती से सोशलिज्म समझ लिया था। आने वाले दिनों में बैठक से निकलने वाली बातों को पहलू पर सबके साथ शेयर करने का प्रयास करूंगा। इस उम्मीद में कि बातें सबके काम की होंगी। आप लोगों के फीडबैक का स्वागत है।

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

इन बैठकों में बहुत कुछ सीखने को मिलेगा, रोचकता से पूर्ण होता है, इस प्रकार बैठकर बतियाना।

jagdish yadav said...

sukh milta hai baithak ke sath kuchh pal rah kar.
jagdish yadav

चंद्रभूषण said...

लेकिन जगदीश जी आपका आना कम हो गया है...