Saturday, March 23, 2013

कहीं दूर उसने कहा

तुम यहीं रहने लायक थे
यहीं, मेरे पास, ठीक इसी जगह
मुझे तुम्हें जाने नहीं देना चाहिए था।

जब-तब दुखी कर जाता है यह खयाल
कि तुम्हारा जाना मैंने कबूल क्यों किया।

लेकिन यह सिर्फ एक रोमांटिक खयाल है।

तुम यहां कैसे रह सकते थे?

प्रकृति के नियमों के खिलाफ होता यह
जिन पर सिर्फ गुस्सा किया जा सकता है,
जिन्हें बदला नहीं जा सकता।

तुम्हें नहीं पर मुझे पता था-
कीचड़ और कांटों से बना है आगे का रास्ता।

पहले कदम से आखिरी मुकाम तक
बारीकी से गुंथे हुए कीचड़ और कांटे
और जहां-तहां सिर्फ कीचड़ या सिर्फ कांटे।

(ये ही जगहें राहत की...
राहत के छोटे-छोटे मुकाम
जिन्हें मंजिल कहने का चलन है।)

मेरी कोई सलाह तुम्हारे काम की नहीं
उपमा में नहीं, सच में हम दो अलग-अलग दुनियाओं में हैं।

कैसे कहूं,
मुझे डर लगता है, जब देखता हूं तुम्हें किसी मंजिल के करीब।

क्या तुम कीचड़ में धंसते चले जाओगे?
गढ़ डालोगे इसका ही कोई सौंदर्यशास्त्र?

या कि कांटे छेद डालेंगे
शरीर के साथ-साथ तुम्हारी आत्मा भी?

मेरे पास कभी न आ सकोगे, यह दुख है
पर जानते हो, मेरा सुख क्या है?

बार-बार अपनी राहतों में तड़पते हुए
हर बार कहीं और चले जाने की चाह में
तुम्हें हुमकते हुए देखना।

नशेड़ी, पागल, बदहवास
किसी हत्यारे जैसे दिखते हो
न जाने किन तकलीफों में होते हो
पर इन्हीं वक्तों में दिखते हो वह,
जो तब थे, जब यहां थे तुम।

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

राह किसी की कब रोकें हम,
जाना जिसको, जायेगा ही।