Saturday, December 22, 2012

भग्न मन

आते-जाते अनजाने में
हाथ का लोहा खड़खड़ करता है
शीत लहर में हवा चली है
दिल-दरवाजा भड़भड़ करता है

दूर-दूर तक कोई गहरी बात नहीं है
सबकुछ पटरा सबकुछ सरपट
या जैसे कह गए निराला-
खिन्न तन भग्न मन
जीवन विषण्ण वन...
या फिर कविवर आनंद बक्षी-
ऐसे नाता तोड़ गए हैं
मुझसे ये सुख सारे
जैसे जलती आग किसी वन
छोड़ गए बंजारे....

देखो-देखो दोनों जगह वन

तो क्या वन ही जीवन है
अब इस बारहमासी शीतलहर में?

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

अग्नि धधकती कहीं हृदय में,
इसी समय की राह देखती,
मन को तनिक सम्हालो प्यारे,
मन का संबल धारो प्यारे।