Monday, February 13, 2012

घर से बाहर

कभी कोई नल टपकता है
कभी कोई कब्जा झूल जाता है
एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता
जब घर मुझे तंग नहीं करता

न एक भी रात
जब घर के सपने नहीं आते

नमक खाई ईंटों वाला
सीलन भरी गंध से गंधाता
अधगर्म बिस्तरों वाला घर
जो जितनी राहत देता है
उससे ज्यादा डर
मन में बिठाए रहता है

अब से बीस साल पहले
जब घर के बारे में
पहली बार कुछ कहा था
तब एक वैचारिक साथी ने
टोकना जरूरी समझा-

यह लिखने से पहले
वे करोड़ों इंसानी शक्लें
तुम्हारे सामने क्यों नहीं आईं
जिन्हें छत कभी नसीब ही नहीं हुई

मुझे तब भी लगता था
और अब भी लगता है,
उन्हें देखने का जतन क्या करूं
जब उन्हीं में से एक हूं

सिर पर छत कभी होती है
कभी नहीं होती
लेकिन उसके गिर पड़ने या
उड़ जाने का खौफ हमेशा होता है

जनम लेने के बाद से आज तक
मैं घर से ही जूझ रहा हूं
कम से कम अपने सपनों में तो
मुझे इससे आजाद रहना चाहिए।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

घर मन में घर कर गया..

दीपिका रानी said...

बहुत बढ़िया