Saturday, January 7, 2012

गीता और फैसले का क्षण

रूस की एक अदालत में गीता को आतंकवाद समर्थक ग्रंथ घोषित करने का मुकदमा अभी चर्चा से बाहर भी नहीं हुआ था कि भारतीय मूल के जाने-माने ब्रिटिश अर्थशास्त्री लॉर्ड मेघनाद देसाई ने भारत में ही आयोजित एक सेमिनार में इसे जनसंहार समर्थक ग्रंथ बता दिया। इतना ही नहीं, देसाई ने महात्मा गांधी द्वारा गीता को अंगीकार किए जाने को उनके अहिंसा सिद्धांत से एक बड़ा विचलन बताया और इसे हिटलर के बारे में उनकी उस टिप्पणी से जोड़कर देखा, जिसमें हिटलर को ‘सभी दुर्गुणों से रहित, साफ सोच वाला एक शाकाहारी बौद्धिक’ कहा गया था।

अगर कोई गांधी वाङ्मय के आधार पर उनकी सोच और उनके बयानों में मौजूद विसंगतियां दर्ज करने निकले तो उसे निराश नहीं होना पड़ेगा, क्योंकि वहां इनकी कोई कमी नहीं है। लेकिन अगर गांधी के दोषों की धुरी गीता के साथ उनके रिश्ते को बनाया जाए तो बहुत सारे लोगों को एक साथ कठघरे में खड़ा करना पड़ेगा। अभी यह सोच कर अजीब लगता है, लेकिन भारत के स्वाधीनता आंदोलन में गीता ने कमोबेश केंद्रीय ग्रंथ जैसी भूमिका निभाई थी। स्वराज आंदोलन के नेता लोकमान्य तिलक, कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ी ऑल इंडिया किसान सभा के पहले अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती और भूदान आंदोलन के प्रेरणा स्रोत विनोबा भावे जैसे अलग-अलग धाराओं के आंदोलनकारियों ने इसकी भाषा टीका लिखी थी।

इसकी वजह अगर सिर्फ यह होती कि यह किताब भारत के लगभग सभी उच्च जातीय मध्यवर्गीय हिंदू घरों में एक धर्मग्रंथ के रूप में मौजूद थी, तो कहना होगा कि देश में ऐसी हैसियत वाली यह अकेली किताब नहीं थी। हिंदू धर्म कोई ग्रंथ या पैगंबर आधारित धर्म तो है नहीं। गीता की मान्यता वैष्णवों में ज्यादा है तो शैवों-शाक्तों में दूसरे ग्रंथ पॉपुलर रहे होंगे। जिन शंकराचार्य को आधुनिक हिंदू धर्म का संस्थापक कहा जाता है, उनके भी चिंतन और कर्म में गीता का कोई विशेष स्थान नजर नहीं आता।

जाहिर है, भारत के स्वाधीनता आंदोलन में गीता की लोकप्रियता की वजह कुछ और थी। शायद चिंतन के बजाय कर्म पर इसका अतिरिक्त जोर, शायद संबंधों और संस्थाओं को शाश्वत न मानने का इसका आग्रह, शायद ईश्वर और मनुष्य के बीच हुई सीधी बातचीत पर आधारित इसकी रूपरेखा, जिसने भारतीयों को एक ऐसी हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद करने की हिम्मत दी, जिसके राज में सूरज नहीं डूबता था और जिसे तब की दुनिया सूरज के उगने और डूबने जितना ही शाश्वत सत्य मान कर चल रही थी।

गीता मैंने विधिवत कभी नहीं पढ़ी, न ही आगे कभी ऐसा करने के आसार हैं। सिर्फ उसके कुछ चलताऊ श्लोक जब-तब कान में पड़ते रहे हैं, जिनका मतलब सुविधानुसार कभी कुछ भी लगाया जा सकता है। लेकिन अपने कार्यकर्ता जीवन में एक बार मैंने इस ग्रंथ पर स्वामी सहजानंद सरस्वती की टीका जरूर पढ़ी है, और वह इतनी दिलचस्प थी कि एक बार शुरू कर देने के बाद छोडऩे का मन नहीं करता था। किताब मेरे पास ज्यादा देर टिकी नहीं, लिहाजा उसे भी पूरा पढऩे का मौका नहीं मिला। लेकिन करीब बीस साल गुजर जाने के बाद भी उसके एक अध्याय ‘फैसले का क्षण’ की कुछ झलकियां मेरे दिमाग में शेष हैं, जिन्हें मैं यहां शेयर करना चाहूंगा।

फैसले हमारी रोजमर्रा जिंदगी का हिस्सा हुआ करते हैं, लेकिन कुछ फैसले हमारी जिंदगी की दिशा तय कर देते हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के बड़े फैसलों के साथ कुछ और भी पहलू जुड़े होते हैं। मसलन, उनका असर आंदोलन और समाज के भविष्य पर पड़ता है। आम तौर पर ये फैसले भी तात्कालिकता के दबाव में लिए जाते हैं, लेकिन इन्हें हम विजनरी फैसले नहीं कहते। सवाल यह है कि विजनरी फैसला क्या है और इसे लिया कैसे जाए। ‘फैसले का क्षण’ इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश है।

स्वामी सहजानंद ने इस अध्याय में ‘अर्जुन मोह’ की व्याख्या की है, जो लॉर्ड देसाई की नजर में होलोकॉस्ट को जायज ठहराने जैसा है। स्वामीजी लिखते हैं कि बड़ा फैसला सिर्फ और सिर्फ इतिहास को हाजिर-नाजिर मान कर लिया जाना चाहिए। कृष्ण का अर्जुन को विराट रूप दिखाना एक योद्धा को इतिहास के सामने ला खड़ा कर देने के अलावा कुछ और नहीं है। समय के सामने न व्यक्तियों की कोई औकात है न रिश्तों की- आपको सिर्फ उन मूल्यों से जोड़कर याद किया जाएगा, जिनके लिए आपने संघर्ष किया था।

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पढ़े लिखों की समझ पर तरस आती है, श्रीमान जी को युद्ध तो दिखा, कर्म नहीं दिखा।

अनूप शुक्ल said...

समय के सामने न व्यक्तियों की कोई औकात है न रिश्तों की- आपको सिर्फ उन मूल्यों से जोड़कर याद किया जाएगा, जिनके लिए आपने संघर्ष किया था।
ये बात मार्के की है।

Ek ziddi dhun said...

समयांतर जनवरी अंक में गीता प्रकरण को लेकर संपादकीय और डीडी कोसांबी का लेख छपे हैं। कोसांबी जी बड़ी दिलचस्प बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि जिन महापुरुषों को गीता भागवद् गीता के आश्रय की जरूरत पड़ी वे सभी हिंदू थे और इत्मीनान की ज़िंदगी बिताने वाले वर्ग के थे। सामान्य जन भी और इस वर्ग विशेष के सामान्य जन भी इससे कटे रहे। जनसाधारण वर्ग से आए कवि उपदेशकों का काम गीता के सहारे के बगैर चला।

Smart Indian said...

गीता पर स्वामी सहजानंद सरस्वती की टीका की जानकारी के लिये आभार। आपने सही कहा कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में गीता ने कमोबेश केंद्रीय ग्रंथ जैसी भूमिका निभाई थी। लॉर्ड देसाई की होलोकॉस्ट टिप्पणी के बारे में - "कोई टिप्पणी नहीं"।