Friday, January 14, 2011

बुल्लेशाह को फिर से खोजें

बुल्ला की जाणा मैं कौन? थैया-थैया करके थक गए फकीर बुल्लेशाह ने सदियों पहले किसी दिन यह बात खुद से अकेले में कही होगी। योगवाशिष्ठ में ठीक यही सवाल राम अपने गुरु वशिष्ठ से करते हैं। किसी अंधियारी रात में वह गुरु के घर का दरवाजा खटखटाते हैं। भीतर से गुरु पूछते हैं- कौन? राम बाहर से बोलते हैं- यही तो जानने आया हूं कि मैं हूं कौन? यह कोई संयोग नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में धर्म, सभ्यता, क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता आदि जैसे पहचान से जुड़े सवालों से खदबदा रहा दक्षिण एशिया कभी नुसरत फतेह अली खां, कभी वडाली बंधुओं, कभी रब्बी शेरगिल तो कभी ए. आर. रहमान के सुरों पर सवार बुल्लेशाह की रचनाओं में सुकून पा रहा है।

बाबा का जीवनकाल 1680 से 1757 के बीच माना जाता है। एक ऐसा दौर, जिसकी पहचान औरंगजेब की मजहबी तानाशाही और गुरु गोविंद सिंह की बगावत से जुड़ी है। दिल्ली तख्त के सीधे निशाने पर होने के बावजूद नवें गुरु तेग बहादुर को इस फकीर ने खुलेआम गाजी (धर्मयोद्धा) करार दिया था। हिंसा और रक्तपात से भरे उस युग को ध्यान में रखें तो बाबा बुल्लेशाह की इस काफी (सूफी छंद) का एक अलग अर्थ निकलता है- वाह-वाह माटी दी गुलजार। माटी घोड़ा, माटी जोड़ा माटी दा असवार। माटी माटी नूं दौड़ावे, माटी दी खड़कार। माटी माटी नूं मारन लागी, माटी दे हथियार....। मिट्टी का घोड़ा, मिट्टी का जोड़ा, मिट्टी का ही सवार। मिट्टी मिट्टी को दौड़ावे, मिट्टी की झनकार। मिट्टी मिट्टी को मार रही है, मिट्टी के हथियार....।

बुल्लेशाह सूफी पंथ के कादरी सिलसिले से संबंध रखते थे, जो उस समय इस्लामी कट्टरपंथ के अग्रदूत के रूप में सक्रिय सरहिंदी तहरीक के मुकाबले उदार इस्लाम का प्रतिनिधित्व करता था। जहांगीर के बाद मुगल सल्तनत का सुसंस्कृत वारिस दारा शिकोह खुद को कादरी सिलसिले के बहुत करीब पाता था। दिल्ली पर जबतक उसका प्रभाव रहा, पंजाब में उदार और सहिष्णु इस्लाम की धारा बहती रही। यह क्रम बाबा बुल्लेशाह की पैदाइश के ठीक तेरह साल पहले औरंगजेब के हाथों दारा शिकोह की पराजय के साथ टूट गया और कादरी सिलसिला अचानक उस समय की सरकारों की नजर में धर्मद्रोह और बगावत के अड्डे की तरह जाना जाने लगा।

बुल्लेशाह की कविता में कट्टरपंथ और शाही रौब-दाब के प्रति मौजूद हिकारत एक हद तक उनके धार्मिक पंथ से भी प्रभावित है, हालांकि कवि की चेतना हमेशा सामूहिक से ज्यादा निजी ही हुआ करती है। अब इसका क्या करें कि कादरी शब्द अभी हाल में पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या करने वाले उन्मादी कट्टरपंथी के नाम में भी बदस्तूर जुड़ा है। पता नहीं उसका या उसके परिवार का संबंध सूफी पंथ कादरी फिरके से है या नहीं।

बुल्ला की जाणा मैं कौन को ही गौर से सुनें तो फकीर बुल्लेशाह की विराट चेतना और उनके क्रांतिकारी अध्यात्म की सरहद छू सकते हैं। ना मैं मोमिन विच्च मसीतां, ना मैं विच्च कुफर दिआं रीतां। ना मैं पाकां विच्च पलीतां, ना मैं मूसा ना फिरऔन। ना मैं अंदर बेद किताबां, ना विच भंगां होर शराबां। ना विच रिंदां मस्त खराबां, ना विच जागन ना विच सौन।.....अव्वल आखर आप नूं जाना, ना कोई दूजा होर पिछाना। मैथों होर न कोई सियाना, बुल्ला शाह खड़ा है कौन।

न तो मस्जिद में रमने वाला मोमिन हूं, न कुफ्र की रीत से कोई लेना-देना है। न पवित्र लोगों के बीच गंदा हूं, न मूसा हूं, न फराओ। न वेद और दूसरी किताबों में हूं, न भांग और शराब में। न मस्त शराबियों के बीच खराब हुआ पड़ा हूं, न जागने वालों में हूं, न सोने वालों में। .....प्रारंभ और अंत मैं खुद को ही जानता हूं। किसी और की मुझे पहचान नहीं है। मुझसे सयाना कोई और नहीं है। बुल्लेशाह, तेरी शक्ल में ये कौन खड़ा है?

बुल्लेशाह के बारे में किस्सा है कि एक बार रमजान के महीने में वह अपने डेरे में बैठे बंदगी कर रहे थे और उनके चेले बाहर बैठे गाजर खा रहे थे। कुछ रोजादार मुसलमान उधर से गुजरे और फकीर के डेरे पर लोगों को रोजा तोड़ते देख नाराज हो गए। पूछा - तुम लोग मुसलमान नहीं हो क्या? जवाब हां में मिला तो उनकी कुटाई कर दी। फिर उन्हें लगा कि कुछ सेवा उस उस्ताद की भी की जानी चाहिए, जिसके शागिर्द ऐसे हैं। भीतर जाकर पूछा - अरे तू कौन है? बुल्लेशाह ने बाजू ऊपर करके एं- वें हाथ हिला दिए। मोमिनों को लगा, पागल है। बाद में चेलों ने पूछा, बाबा हमें बड़ी मार पड़ी, तुम बच कैसे गए? उन्होंने कहा, तुमसे कुछ पूछा था ? वे बोले, मजहब पूछा था, मुसलमान बताया तो मारने लगे। बुल्लेशाह ने कहा - बेटा, कुछ बने हो, तभी मार खाई है। हम कुछ नहीं बने तो बच गए।

सूफी संतों की आम छवि पढ़ाई-लिखाई को घंट पर मारने वालों की हुआ करती है, लेकिन इस छवि से उलट बाबा बुल्लेशाह अपने समय के एक कुलीन परिवार से आए हुए काफी पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। उनकी मानसिक गति ज्ञान से भावना की ओर, पढ़े से अपढ़ होने की ओर, तर्क्य से अतर्क्य की ओर बढ़ने की थी। संसार के कम ही बौद्धिकों को यह सुयोग हासिल होता है, और जिन्हें होता है, उनमें से कोई विरला ही इससे उपजी ऐंठ से बच पाता है। बुल्लेशाह की काफियां सुनने में तो अच्छी लगती ही हैं लेकिन उन्हें पढ़ने का भी एक अलग आनंद है। इसके लिए आपको सिर्फ कामचलाऊ पंजाबी आनी चाहिए, और धार्मिक राग-द्वेष से मुक्त एक खुला दिमाग, जिसमें कवि का मर्म समझने का जज्बा हो।

बाबा बुल्लेशाह की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों अभी पाकिस्तानी पंजाब में है। पता नहीं वहां उभरते मजहबी कट्टरपंथ ने अब उनके घर में उनके बागी सुर के लिए कोई जगह छोड़ी है या नहीं।

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

तभी यह गाना सुनकर इतना अच्छा लगता है।

नया सवेरा said...

... saarthak lekhan !!

अजेय said...

अच्छी जानकारी. सूफी सिल्सिलों का इतिहास और अधिक जानने की इच्छा है.

Smart Indian said...

थोडा बहुत सुना था, अब जानकर अच्छा लगा। पढकर निदा फाज़ली की पंक्तियाँ,
"माटी का पुतला ही माटी के पुतले को ज़ोडे,
माटी ही माटी से से अपने रिश्ते-नाते तोडे"
और शंकर की
"मनुबुध्यहंकार चित्तनिनाहम्..." याद आ गयीं।

यूँ ही सोच रहा हूँ कि बुल्लेशाह (और शिकोह के गुरु शेख चिल्ली आदि) को इस देश में वह स्थान क्यों नहीं मिला जो अजमेर, दिल्ली, सीकरी (और बदायूँ)के कई सूफियों को मिला है।

वर्षा said...

अच्छी जानकारी मिली....बुल्ला की जाणा मैं कौन...भी मुझे बेहद पसंद है।

SANTOSH said...

BEHAD ROCHAK JANKARI MILI BULLE SHAH TO BAHUT UNCHE N PANHUCHE HUYE SANT KAVI HAIN UNKI YE RACHNA MUJHE BEHAD PASAND HAI