Saturday, March 27, 2010

आन्या स्मिरनोवा से बातचीत

भरतनाट्यम की महत्वपूर्ण नृत्यांगना, यूक्रेन निवासी आन्या स्मिरनोवा पिछले दिनों भारत आई थीं। दिल्ली में और विशेष रूप से तंजौर में उनकी प्रस्तुतियां काफी चर्चित रहीं। यूक्रेन की राजधानी कीव में नक्षत्र नाम से एक भारतीय थिएटर चलाने वाली आन्या उन विरले विदेशियों में हैं, जो अपनी आत्मा से भारतीय हैं। दो संस्कृतियों की गौरवशाली संधि पर खड़ी इस नृत्यांगना से चंद्रभूषण की बातचीत:

आन्या, आपकी प्रस्तुति से चकित हूं। सात समुंदर पार रहते हुए इस जटिल नृत्य के ताल-सुर कैसे साधती हैं आप?
यह मेरे भीतर बजता है। छह साल भारत में रहकर की गई साधना मुझे कभी इससे दूर नहीं होने देती। अपने थिएटर में शिष्यों को सिखाने के लिए मैं म्यूजिक की सीडी का सहारा लेती हूं, लेकिन खुद अक्सर बिना संगीत के नाचती हूं। नाचते हुए मैं मन ही मन गाती हूं। लय को अपने भीतर महसूस करती हूं। इससे मुझे नृत्य को अपने भीतर से खोजने में मदद मिलती है। इस क्रम में वह थोड़ा इंप्रोवाइज भी होता जाता है।

हमारे लिए तो यूक्रेन सिर्फ किताबों में पढ़ा एक नाम है। वहां से भारत तक आपकी अंतर्यात्रा कैसे संभव हुई?
हम लोग भी मूल रूप से यूक्रेन के नहीं हैं। मेरे दादा जी उत्तरी रूस के रहने वाले फाइटर पायलट थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्हें वार हीरो की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। फिर वे कीव चले आए और यहां की एयर फोर्स अकेडमी में पढ़ाने लगे। इस तरह बहुसंस्कृतिवाद मेरे लिए बाहर से खोजी हुई कोई चीज नहीं बल्कि एक भीतरी बात है। पेरेस्त्रोइका के दौर में सोवियत संघ बिखरने लगा और राष्ट्रीय पहचानों ने जोर पकड़ा तो बाहर से आए हम जैसे लोगों ने पहली बार खुद को असुरक्षित महसूस किया। शायद यह मेरी अंतर्यात्रा का प्रारंभ बिंदु हो।

लेकिन भारत क्यों?
मैं पांच साल की उम्र से डांस कर रही हूं। एक समय ऐसा आता है, जब नृत्य मशीनी लगने लगता है। ऐसा मुझे टीनेज में पहुंचने के साथ ही लगने लगा। मैंने बैले किया, लेकिन उसमें भी आत्मा का जुड़ाव नहीं महसूस होता था। एक बार कल्चरल एक्सचेंज के तहत मैंने भारत के कुछ टेंपल डांस देखे, जो मुझे बिल्कुल अलग से लगे। फिर अरविंदो को पढ़ा, योगानंद और ओशो को पढ़ा और लगा कि जो मैं खोज रही थी, वह यहीं है। अपनी फॉरेन मिनिस्ट्री की एक स्कॉलरशिप के जरिए मुझे भारत आने का मौका मिला। मैं लगातार छह साल यहां रही, कई तरह के डांस सीखे और अंत में भरतनाट्यम पर जाकर रुकी।

यहां तो पश्चिमी नृत्यों के प्रति आकर्षण कहीं ज्यादा है। इसे देखते हुए आपकी यात्रा उलटी जान पड़ती है.....
यह तो अपनी-अपनी रुचि की बात है। भारत में हॉलिवुड आदि के प्रभाव में जो पश्चिमी नृत्य मुदाएं प्रचलित हैं, उनका मूल यूरोप के लोकनृत्यों में मौजूद है। लेकिन मुझे यूरोपीय नृत्यों में बैले पसंद है, जो वहां का शास्त्रीय नृत्य है।

बैले हो, कथक हो या भरतनाट्यम, कथा तत्व तो सभी में है। इनमें अंतर क्या है, जो आपने भरतनाट्यम को तरजीह दी?
फिलॉसफी के स्तर पर बैले और भारत के मंदिर नृत्य एक-दूसरे से काफी अलग हैं। ईसाई दर्शन में शरीर के प्रति एक किस्म की हिकारत मौजूद है। इसके चलते बैले के मूवमेंट्स उड़ते से हुआ करते हैं। ज्यादातर बैले कथाएं किसी न किसी किस्म की आध्यात्मिक यातना से उपजी हुई हैं, जो ईसाइयत का आधार है। इसके विपरीत भरतनाट्यम और अन्य मंदिर नृत्यों में शरीर के प्रति गहरा लगाव होता है। राधा-कृष्ण और शिव-पार्वती की प्रणय कथाएं ही प्राय: इनका कथा तत्व निर्मित करती हैं, जिनमें यातना के लिए कोई जगह नहीं होती। यहां मूल तत्व आनंद का है, जो संयोग में ही नहीं, वियोग में भी उपस्थित होता है।

पश्चिमी नृत्य में हमारे लिए सबसे बड़ा नाम इजाडोरा डंकन का है। ऐसी कोई आध्यात्मिक तड़प उनके यहां क्यों नहीं दिखती?
इजाडोरा का नृत्य मैंने देखा नहीं, लेकिन उनका लिखा हुआ काफी पढ़ा है। मेरी ही जैसी एक रुकावट उन्होंने भी अपने भीतर महसूस की थी। इससे निकलने के लिए उन्होंने ग्रीक संस्कृति के करीब जाने की कोशिश की, लेकिन वह तो कब की मर चुकी है। उसे पुनर्जीवित करना असंभव था। उनकी यह खोज अंत में उन्हें प्रकृति के करीब ले गई, जहां से वह अपने नृत्य को नई ऊंचाइयों पर ले गईं। मुझे यकीन है कि यदि उन्हें भारतीय संस्कृति का सान्निध्य प्राप्त हुआ होता तो उनकी यात्रा कुछ और होती।

आजकल संगीत और नृत्य में फ्यूजन काफी चर्चा में है। ऐसा कोई प्रयोग आपके भी अजेंडा पर है?
फ्यूजन से मेरा कोई विरोध नहीं है। इस दिशा में कुछ अच्छा काम भी हुआ है। लेकिन निजी तौर पर मुझे यह ज्यादा पसंद नहीं है। मुझे लगता है कि पूरब और पश्चिम का नृत्य इतना अलग है, खासकर भारत के टेंपल डांसेज अपनी कंसेप्ट में इतने खास हैं कि किसी और चीज के साथ इनका फ्यूजन संभव ही नहीं है।

तो फिर आगे क्या?
मैं भरतनाट्यम की बारीकियों में और गहरे उतरना चाहती हूं। अभी के समय में शास्त्रीय नृत्यों और नर्तकों का बचे रहना कठिन है। मेरी यात्रा इन्हें बचाए रखने तक ही सीमित है।

3 comments:

Amitraghat said...

बहुत बढिया बातचीत...प्रसन्नता हुई यह पढ़कर कि अभी भी हमारी संस्कृति जीवित है और कलाओं के द्वारा जो कि सदैव ही जीवित रहेगी......"

MS said...

बिल्कुल सहज और सुंदर बातचीत है...आगे भी ऐसे पीस पढ़ने को मिलेंगे...ऐसी उम्मीद है...

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प !