Friday, November 20, 2009

अठार में लिया बाई में बेक दिया

कल तो मैंने नेगी की ले ली- रोहित ने आज सुबह अचानक घोषणा की। रोज मेरे साथ वॉलीबॉल खेलने वाले रोहित पाल ऐसे बहुत सारे लोगों में एक हैं जो यहां अपने लिए बिना किसी काम-धंधे की व्यवस्था किए घर पर बाप की जुगाड़ी संपत्ति से दिल्ली के आसपास एक फ्लैट खरीद कर यहां धूल से रस्सी बटने में जुटे हुए हैं। आज खेल शुरू होने से ठीक पहले उन्होंने गोरखपुरिया रंगबाजी और नए-नए अपनाए गए पछांह लहजे के साथ गुटका संस्करण में अपना नेगी पुराण सुना डाला।... शाम होते ही चढ़ गया साले के घर पे... कहा निकाल दे चार लाख अब तो यहीं के यहीं।

मुझे पता नहीं था कि मेरे मोहल्ले में एक नेगी नाम के जीव भी रहते हैं जो गढ़वाली फिल्में बनाते हैं और मजबूरी आ पड़ने पर इनकी हीरोइनों में से कभी-कभी एकाध को अपनी पत्नी भी बना लेते हैं। इस तरह वैध कही जा सकने वाली उनकी तीन पत्नियों में से एक के साथ वे मेरे घर से थोड़ी ही दूर अपना आशियाना बनाए हुए हैं। फिल्में बनाने जैसा रचनात्मक काम बराबर नहीं किया जा सकता और इससे पैसे निकालने का काम तो कभी-कभी ही हो पाता है। लिहाजा नेगी साहब रेगुलर दाल-रोटी के लिए गुप्त ढंग से कुछ प्रॉपर्टी खरीदने-बेचने का धंधा भी कर लेते हैं।

यह बात रोहित को पता नहीं थी। एक दिन नेगी साहब ने उससे कहा कि यार कोई घर दिखा दे ठीकठाक लेकिन सस्ता सा। रोहित और उसके चाचा महेश प्रॉपर्टी समेत ऐसा हर काम करते हैं जिसमें जेब से पैसा न लगाना पड़े लेकिन कमाई एकमुश्त हो जाए। रोहित को लगा कि नेगी के किसी करीबी आदमी को फ्लैट खरीदना होगा। सौदा हो जाएगा तो दो पैसे उसके भी बन जाएंगे। लिहाजा एक मकान उसने नेगी को दिखा दिया। उधर नेगी साहब ने मकान के मालिक से बात करके उससे अट्ठारह लाख में मकान का सौदा कर लिया और अपने दो दोस्तों से मिल कर हफ्ते भर में ही जी टीवी में काम करने वाले एक शरीफ पत्रकार को बाइस लाख में बेच भी दिया।

रोहित को पता चला तो उसने मकान मालिक से बात की। उसने कहा कि हां, सौदा हो गया- अठार में मुझसे लिया, बाई में बेक दिया। मकान की कंपाउंडिंग नहीं हुई थी इसलिए मकान मालिक के लिए भी सौदा फायदे का था। कोई समझदार आदमी तो बिना कंपाउंडिंग के कागजात देखे मकान खरीदता नहीं। खरीदता भी तो बहुत सारा मोलभाव करता। लेकिन नेगी की नजर दूर तक थी। उन्हें पता था कि दुनिया को चराने का दावा करने वाले मीडिया वालों को चराने से ज्यादा आसान काम कोई नहीं है। इस तरह वे कई चीलों के साझा घोसले में पड़ा मांस का एक टुकड़ा ले उड़ने में कामयाब रहे।

रोहित का कहना है कि मकान उसका ताड़ा हुआ था, बात उससे हुई पड़ी थी, नेगी को मकान तड़ाया उसी ने, फिर साले नेगी की इतनी हिम्मत कि बिना जानकारी के मकान बेच दे और पैसा भी खा जाए। बहरहाल, रोहित की रंगबाजी का मुकाबला करने के लिए नेगी खुद को ऊंचा लगाने वाले एक त्यागी ब्रोकर को पकड़ लाए, जिसने यह कहकर मामला सुलटाने की कोशिश की कि पैसे तो अब खाए जा चुके हैं इसलिए रोहित सबर कर जाए। लेकिन रोहित अगर ऐसे ही सबर करने लगा तब तो उसने दिल्ली में कमा खाया। दो ही रास्ते हैं, या तो यह सौदा रद्द होगा, या फिर नेगी को अपने पेट से निकाल कर रोहित को उसके पैसे लौटाने होंगे।

इस सत्यकथा से नैतिक शिक्षा यह मिलती है कि अगर आपका इरादा दिल्ली के आसपास रहने के लिए कोई फ्लैट खरीदना या किराये पर लेना है तो आप खुद को भेड़ियों के झुंड में पड़े खरगोश जैसा महसूस करते हुए इसकी प्रक्रिया में जाएं। चीज आप तक पहुंचने से पहले कितनी बार खरीदी-बेची जा चुकी होगी, इसका अंदाजा लगाना आपके लिए मुश्किल होगा। मकान सस्ता दिला देने के लिए आप जिस आदमी के तहेदिल से शुक्रगुजार हो रहे होंगे, वह अपने दोस्तों के साथ अच्छा मुर्गा मूंड़ लेने की खुशी में कहीं पार्टी कर रहा होगा...बशर्ते यह करते हुए वह किसी रोहित के हत्थे न चढ़ जाए।

3 comments:

Yunus Khan said...

वाह जी वाह ये तो 'खोसला का घोसला' हो गया जी ।

Sharad said...

Bhai Chandu, aapka commanwealth wala aur yeh post ek khas trend ki or ingit kar raha hai. yeh lagbhag America ki mortgage crisis jaisa ho raha hai. Log bajay imandar mehnat se kamane ke satta bazar ka hissa ban rahe hain. Bank, Sarkar sabhi is pravarti ko badhava de rahe hain.
Badhai is pravarti ko rekhankit karane hetu.
Sharad

चंद्रभूषण said...

@ शरद जी, कौन?