Tuesday, July 14, 2009

सूखे में बारिश का इंतजार

पिछले पंद्रह दिनों से यही हाल है। कभी सुबह से ही ऐसा माहौल बनता है जैसे अभी जम कर बारिश हो जाएगी। लेकिन थोड़ी ही देर में बादल साफ हो जाते हैं या धुंधले पड़ जाते हैं। कभी शाम को बिजलियां कड़कती हैं लेकिन सारा किस्सा कहीं दूर का मालूम पड़ता है। हवा में लगातार इतनी उमस बनी रहती है कि घर में रहते दम घुटता है। पंखे के नीचे लेटिए तो शरीर में जितनी दूर हवा लगती है उतनी ही दूर राहत रहती है। उसके ठीक बगल में ही या नीचे जबर्दस्त पसीने से बिस्तर भीग रहा होता है। अब उम्मीद धीरे-धीरे जा रही है। लगता नहीं कि इस साल इतनी बारिश हो पाएगी कि धरती की तपन कम हो सके। सबसे बुरी बात है कि ऐसा मौसम न सिर्फ रचनात्मकता के लिए, बल्कि पूरे मानसिक स्वास्थ्य के लिए ही खतरनाक है।

मुझे उत्तर भारत में सूखे के दो हालिया सालों की याद है। कुछ घटनाएं इनसे जुड़ी हुई हैं, जिनका मौसम संभवतः जून-जुलाई का ही है। ये साल हैं 1995 और 2001 के। इन सालों की घटनाएं याद करके मुझे लगता है कि निर्मल वर्मा की कहानी सूखा की तरह बाहर का सूखा अक्सर लोगों के मन और उनकी अंतश्चेतना में और भी गहरा सूखा बनकर उतर आता है। 1995 में दिल्ली के कांग्रेसी नेता सुशील शर्मा का नयना साहनी तंदूर कांड और लखनऊ में मायावती का बीजेपी से समर्थन लेकर मुख्यमंत्री बनना लगभग आसपास की ही घटनाएं हैं। मुझे इन घटनाओं की याद एक खास तरह की न्यूरोसिस (मनोरोग) को लेकर है जिसने मुझे उस दौर में कोई महीना भर परेशान किया।

ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई अपनी पत्नी के टुकड़े करके उसे तंदूर में भून दे और ऐसा कैसे हो सकता है कि मनुवाद को गालियां देते-देते कोई दलित धारा सबसे प्रखर मनुवादी पार्टी का हाथ थाम ले। पता नहीं कैसे उस दौर में मेरे लिए ये राजनीतिक घटनाएं आपस में जुड़ गईं और बाहरी न रह कर मेरे भीतर चली गईं। मैं हंसना भूल गया और बहुत ज्यादा चिड़चिड़ा हो गया। दोस्तों से मेरे झगड़े होने लगे और लिखना-पढ़ना सब कसैला हो गया। भौतिक इलाज के रूप में मेरा काम हफ्ते भर मशीन पर आंखों की कसरत और सुबह टहलने-घूमने की दिनचर्या दुरुस्त करके चल गया। लेकिन वह मेरी शादी के तीन-चार महीने बाद का समय था और संयोगवश उस समय की अपनी जो एक-दो तस्वीरें मेरे पास बची हुई हैं उन्हें देखकर मैं आज भी अपनी समस्या को याद कर सकता हूं।

कुछ ऐसा ही हाल सन 2001 में देखने को मिला था काला बंदर या मुंहनोचवा के रूप में। इन घटनाओं के पीछे शरारत चाहे जिसकी भी रही हो और नए-नए आए खबरिया चैनलों ने नमक-मिर्च लगाकर इसमें चाहे जितना भी योगदान किया हो लेकिन लगातार गर्मी और सुखाड़ से उपजी सामूहिक न्यूरोसिस का दखल इसमें बिल्कुल साफ नजर आता था। बाहरी दुनिया के समानांतर भीतरी दुनिया में भी तापमान और दबाव की एक ऐसी स्थिति, जब अफवाहें लोगों के सिर ज्यादा आसानी से चढ़ जाती हैं और दिमागी दशा सहज तर्क से कहीं ज्यादा भगदड़ के अनुरूप हो जाती है।

जैसे-जैसे बारिश का इंतजार तेज हो रहा है, माहौल में गर्मी और उमस बढ़ रही है, मुझे व्यक्तिगत और सामूहिक न्यूरोसिस का डर सता रहा है। ऐसे में कौन काला बंदर, कौन मुंहनोचवा कहां से उभर आएगा, कोई ठिकाना नहीं। मुझे लगता है कि ब्लॉग जैसी निरापद जगहें भी उसके उभरने के लिए काफी मुफीद हो सकती हैं। ऐसे माहौल में भीड़ और भीड़ की मानसिकता से दूर रहना चाहिए और जहां तक हो सके, खुद को हल्का रखने की कोशिश करनी चाहिए। वैसे बाहर का सूखा भीतर न आए, यह एक ज्यादा गहरी समस्या है और इसका कोई बहुत आसान रास्ता तो हो ही नहीं सकता।

5 comments:

अनिल कान्त said...

लेख तो आपने वाकई बहुत अच्छा लिखा है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

बोधिसत्व said...

भाई मुंबई में तो पानी का खेल तो कुछ और ही है।

अजित वडनेरकर said...

नमस्कार साहब...

चंद्रभूषण said...

@बोधिसत्व- भाई, मुंबई में बाढ़ की खबरें देखकर ईर्ष्याग्रस्त हो रहा हूं और इसके नियंत्रण में रहने की कामना करता हूं।

@अजित वडनेरकर- सलाम भाई, छूटे हुए काम को अब पूरा किया जा सकता है, जब भी आप कहें।

Arvind Mishra said...

सही कह रहे हैं -आशंकाओं से मन बोझिल हो रहा है -डेजा वू या जामिईस वू !