Wednesday, June 24, 2009

मेरे नाम से भेजो

जिंदगी में आज पहली बार कोई मनीऑर्डर भेजा। अपने घर नहीं। वहां तो अब कोई रिसीव करने वाला ही नहीं है। इसकी डिलीवरी पलंगी के घर होगी। बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में चेनमारी टी गार्डेन की फागू लाइन में। पलंगी एक मेड एजेंसी के जरिए हमारे घर में डोमेस्टिक हेल्प के रूप में आई है। उसके पति एक चाय बागान में काम करते हैं और कुछ दिन पहले तक सीपीएम के ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता भी थे। सोलह-सत्रह साल की उसकी एक बेटी है जो आठवीं में पढ़ती है। पलंगी की योजना बेटी को ऊपर तक पढ़ाने और नौकरी कराने की है।

उसी के लिए एक मोबाइल खरीदने को तीन हजार रुपये पलंगी ने घर भिजवाए हैं- अपनी गाढ़ी कमाई का पहला मनीऑर्डर।

यह काम बहुत खर्चीला है। तीन हजार भेजने में 150 रुपये देने पड़ते हैं- पूरे पांच प्रतिशत। समझ में नहीं आता कि खुद को गरीब समर्थक बताने वाली सरकारों को इसमें कोई अन्याय क्यों नहीं नजर आता। अमीर लोग एटीएम के जरिए देश में कहीं भी पैसा निकाल सकते हैं और मुफ्त में इसे कहीं से कहीं भेजवा सकते हैं लेकिन जिसे मनीऑर्डर का ही आसरा है वह रुपये में पांच पैसे तो यहीं गंवा दे। वहां पावती के वक्त डाकिया और डाकमुंशी लेता है सो अलग।

छह-सात महीने पहले जलपाईगुड़ी से दिल्ली आई पलंगी का यह दूसरा काम है। पहला काम नोएडा में मिला था जहां मैडम जी तो बहुत अच्छी थीं लेकिन साहब और उनका लड़का दोनों बदमाश थे। एजेंसी में शिकायत करने पर वहां से हटा लिया लेकिन चार-पांच महीने के पैसे का कोई हिसाब नहीं दिया। पता नहीं बाद में भी देता है या नहीं।

मनीऑर्डर का फॉर्म भरने के बाद मैंने पलंगी से पूछा कि क्या इसे अपने नाम से भेज दूं तो उसने कहा- नहीं, मेरे नाम से भेजो। पैसा सही जगह पहुंचे, इसके अलावा इस जवाब में यह खनक भी थी कि मेरी कमाई मैं अपने घर भेज रही हूं तो यह मेरे नाम से ही जानी चाहिए न।

बहरहाल, रसीद सही जगह वापस लौट आए, इसके लिए मैंने केयर ऑफ करके अपना नाम-पता भी डाल ही दिया। महानगरों में आकर मेड का काम करने की अपनी अलग यातना है। एजेंसियों की लूटमार का अपना ही तंत्र है और जिन घरों में काम मिलता है, उनमें भी हर किसी की अलग कहानी होती है। लेकिन यहां से गई कुछ नगदी अगर गांवों और छोटे कस्बों में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और उनकी जिंदगी बनाने के काम आ जाए तो इसके सात खून माफ किए जा सकते हैं।

5 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

पलंगी को सही दिशा प्रदान करने के लिए आपके प्रयास सराहनीय है . बहुत ही भावुक कर देने वाली पोस्ट . कुछ कहते ही नहीं बन पद रहा है . न जाने इस देश में कितनी और भी पलंगी जैसी अन्य युवतियां भी होंगी .

अफ़लातून said...

और नक्सलबाडी भी पलंगी के जिले में है । उत्तर बंग के पांच जिले आन्तरिक उपनिवेश हैं ।

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

मनीआर्ड़र वास्तव में एक समस्या बन गया है। फार्म भरनें से लेकर जमा करनें तक, कम से कम ४ घण्टे चाहिये। पाने वाला शुकराना दे सो अलग। अपनीं कमाई की खनक वाला आब्जर्वेशन अत्यन्त सहज बन पड़ा है। दूर-दराज के गाँवों में समय से पहुँचना भी एक बड़ी समस्या है।

Udan Tashtari said...

सही विचारा..शायद कुछ सार्थक कार्य हो जायें इन पैसो से.

Ek ziddi dhun said...

paisa pahunche hi nahi is tarh ki aashanka bhi rahti hai. postoffice aur banks dono jagh is tarh ke fraud mazdooron ke ath hain