Tuesday, April 21, 2009

राहुल पांडे की ऐंग्जाइटी

एक दिन फोन किया तो पता चला कि सज्जन अस्पताल में पड़े हैं। उनकी पत्नी ने बताया कि कैल्शियम का अटैक पड़ा है। इस तरह की बीमारी के बारे में पहले कभी सुना नहीं था, फिर भी मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। कुछ दिन बाद फिर फोन किया तो इस बार फोन पर खुद राहुल ही थे। बताया कि कैल्शियम का नहीं ऐंग्जाइटी का अटैक पड़ा था, मोटर साइकिल चलाते हुए हाथ पैर ढीले पड़ने लगे, नियंत्रण खोता सा लगा, जैसे-तैसे घर पहुंचे और चौखट पर ही ढेर हो गए। फिर पड़ोसी की मदद से पत्नी किसी तरह अस्पताल लिवा गईं।

राहुल अभी डेढ़ साल पहले तक हिंदी ब्लॉगिंग के धाकड़ लोगों में थे, जब वह और प्रदीप सिंह नोएडा के सेक्टर 11 में बेरोजगार रहते हुए प्याज का तड़का मारी कातिल दाल और ढेरों भात बनाकर खाया करते थे और कभी-कभी मुझे भी खिलाया करते थे। फिर भड़ासी यशवंत की दिलाई नौकरी राहुल को मेरठ ले गई और काफी टपले खिलाने के बाद वापस साहिबाबाद ले आई। शायद वे कभी दुबारा भी ब्लॉग पर लौटें लेकिन अभी मंदी और बेईमानी के जिस दोहरे दुष्चक्र में वह फंस गए हैं उससे निकलने के लिए उन्हें कई दिशाओं से मदद की जरूरत पड़ सकती है।

मेरठ में एक इंचार्ज नुमा स्वनामधन्य पत्रकार उनके पीछे इस कदर हाथ धोकर पड़े कि लगता था जान ही लेकर छोड़ेंगे और अब साहिबाबाद में भी कमोबेश वैसी ही बिरादरी से उनका पाला पड़ गया। मैं कहता रहा कि हे 42 किलो के इन्सान, रिपोर्टिंग के धंधे में सिर्फ मोटरसाइकिल दौड़ा कर अच्छी-अच्छी खबरें लाने से काम नहीं चलता, इस खतरनाक जगह में सर्वाइव करने के लिए आपको खबर से हट कर बहुत सारे दूसरे काम भी करने होंगे। लेकिन राहुल तो राहुल हैं। अपनी खबरों पर उन्हें बाइलाइन कभी नहीं मिलती लेकिन बात जब भी करते हैं, खबरों पर ही करते हैं। वह नौकरी छोड़ दी और जो नई नौकरी पकड़ी है, उसमें जान बची रह जाए तो भी गनीमत समझनी चाहिए।

कुछ समय पहले अचानक उनका फोन आया कि जिला इन्चार्ज ने बीएसपी से खबरें छापने के लिए पैसे ले रखे हैं जबकि कांग्रेस वाले एक दिन पैसे लेकर सीधे दफ्तर ही चले आए थे। गुस्सा आ गया तो पुलिस को फोन कर दिया और घेर कर पकड़ने की कोशिश तो जैसे-तैसे निकल भागे। यह भी बताया कि स्टाफ की कमाई बंद हो गई है इसलिए सब ऊपर से नीचे तक शिकायत लगाने में जुटे हैं।

मैंने राहुल से साफ कहा कि बाकायदा एक अभियान चला कर अपने अखबार में सबको खुश करें क्योंकि इसके बगैर रिपोर्टिंग तो आप नहीं कर पाएंगे। फिर माहौल कुछ समझ में आने लगे तो कुछ अपनी मर्जी का भी कर लीजिएगा।

फोन पर ऐंग्जाइटी अटैक की बात सुनते ही मैंने राहुल से पूछा कि मेरे नुस्खे पर अमल किया कि नहीं। बोले, किया लेकिन तब तक मामला काफी आगे बढ़ चुका था। एक दिन मुझे फोन पर ही इन्चार्ज ने काफी डांटा और दफ्तर में जाकर चीफ से बात की तो उन्होंने अखबार से सिर उठाए बगैर ही कहा कि तुम्हारा तबादला कर दिया गया है, वहां भी शिकायत सुनने को मिली तो निकाल देंगे।

नई जगह दूर और असुविधाजनक है। सुबह-सुबह वहां के रास्ते में ही वह दौरा पड़ा, जिसे राहुल की पत्नी ने गाजियाबाद के डॉक्टरों के कहे मुताबिक कैल्शियम अटैक और खुद राहुल ने मेरठ के डॉक्टरों के कहे मुताबिक ऐंग्जाइटी अटैक बताया है। डॉक्टरी इलाज से यह बीमारी कुछ कंट्रोल में आ जाएगी, मनोचिकित्सक शायद इसे और ज्यादा काबू कर ले जाएं, लेकिन राहुल जैसे ईमानदार और सजग रिपोटर्रों को जिस असली बीमारी का सामना करना पड़ रहा है, उसका इलाज भला कहां मिलने वाला है?

मालिकों के खास आदमी, जिन्हें आजकल ब्रांड मैनेजर, संपादक, ब्यूरो चीफ वगैरह कहने का चलन हो गया है, मंदी की आड़ लेकर अखबारों में सारे ढंग के लोगों का इंतजाम करने में जुट गए हैं। अगर संभव हो तो इसी मंदी के बीच इनकी संपत्तियों की पड़ताल की जाए कि मंदी के बहाने ये अखबारों के हिस्से आने वाली कितनी रकम अपने पास दबा ले गए हैं। ब्लॉगिंग के माध्यम का कुछ ढंग का इस्तेमाल होना है तो यहां कुछ ऐसे असुविधाजनक काम भी करने ही होंगे।

5 comments:

Ek ziddi dhun said...

Doctor kuchh nahi karenge. in halato mein Dost hi madaadgar ho sakte hain. Akhbar achhe admyion ke liye yatnagrih ban gaye hain. Mujhe ye padhkar kafi kuchh yaad aa raha hai apna pichhla waqt.

कौतुक रमण said...

अफ़सोस होता है. पर यह सच्चाई है कि आज सिर्फ सच्चाई नहीं बिकती, उसे भी अछे रैपर में मसाला लगा कर बेचना पड़ता है.

दिनेशराय द्विवेदी said...

चन्द्रभूषण जी आज की सचाई यही है। मार्क्स ने कहीं कहा था कि पूंजीवाद ने वकीलों और डाक्टरों जैसे स्वतंत्र पेशे वाले लोगों को अपना गुलाम बना लिया है। यही हाल पत्रकारिता का रहा है। जो बिकने से मना करता है उस की स्थिति पांडे जी जैसी होती है। क
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाटी हाथ
जो घर फूंके आपना चलै हमारे साथ

स्वप्नदर्शी said...

Rahul ji kee pareshaanee der saber, baar baar un sabhee logo ke samane khaDee ho jaatee hai jo duniyadaaree ko aatmsaat nahee kar paate.

Par jaise duniya nahee badaltee, insaan kaa bheetaree swabhav bhee asaasnee se nahee badalta. Isee swabhav aur isee duniyaa me rahanaa hai......, dono par kuch khaas bas hamaara chaltaa nahee hai.....

प्रदीप सिंह said...

har jagah santulan ki jarurat hoti hain. kam bahut matlab nahi rakhata hain.media me hamare bhi subhchintak yahi kahate hain.