Wednesday, April 2, 2008

लेखक की मिट्टी

लेखक के किसी कैरिकेचर के बारे में नहीं, मैं सचमुच के एक लेखक की जिंदगी से जुड़े कुछ खास पहलुओं के बारे में लिखना चाहता था। इसमें प्रसंगवश आए 'बेटी प्रकरण' में काल-क्रम की एक छोटी-सी गलती रह गई, जिसका लेखक से ज्यादा मुझे अफसोस है। सफाई क्या दूं, कभी इस बारे में यहां लेखक के मुंह से ही सुन लीजिएगा।

पत्नी की मौत के बाद और दफ्तर में नए-नए बने (संभावित) प्रेम संबंध की मौत से पहले मैंने एक दिन लेखक से पूछा, क्या आप अपनी पत्नी को प्यार करते थे?

जवाब आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा- प्यार तो मैं सिर्फ उसी से करता था।

मैंने कहा, यह तो कोई बात नहीं हुई। ऐसा होता तो उस रिश्ते का कुछ तो हैंगओवर आप पर होता। अभी तो उन्हें मरे साल भी नहीं बीता और आप...

लेखक ने कहा, यह जो है, इसकी अपनी जगह है, लेकिन प्यार तो मैं अपनी पत्नी से ही करता था।

मैंने कहा, यह नहीं चलेगा कि आपने कह दिया और मैंने मान लिया। इसका कुछ सुबूत दीजिए कि आप सचमुच अपनी पत्नी से प्यार करते थे।

जवाब में लेखक को कुछ देर सोचना पड़ा। उसने कहा, जब वह थी, तब क्या आप मुझे कभी यहां दफ्तर में देर तक रुका हुआ देखते थे? मैं दिल्ली में कहीं भी रहूं, शाम ढलते घर जरूर पहुंच जाता था। उसका दुख मुझसे बर्दाश्त नहीं होता था।

मैंने कहा, इसकी वजह सिर्फ साथ रहने की आदत भी तो हो सकती है। लेखक ने कहा नहीं, मैं सचमुच उससे प्रेम करता था क्योंकि उसकी मिट्टी और मेरी मिट्टी एक थी।

मिट्टी एक होने का क्या मतलब है?

इसका मतलब मैं समझा नहीं सकता।

क्या पंजाबियत? विभाजन के समय उस पार से लौटकर आने में भोगी गई परिवारों की साझा पीड़ा?

नहीं, यह सब तो बहुतों के साथ हुआ था। इस दुनिया में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनके बारे में आप कह सकें कि आपकी और उनकी मिट्टी एक है। जो भी लोग ऐसे होते हैं, उनसे ज्यादा बातचीत करने की जरूरत आपको नहीं पड़ती। बिना बोले वे आपकी और आप उनकी बात समझ लेते हैं। और न समझें तो भी पूरा दिन चुपचाप उनके साथ बैठे मजे में गुजार सकते हैं।

यह सब मिट्टी-विट्टी का मामला एक तरफ, लेकिन इनके और उनके और उनके साथ आपके किस्से तो पत्नी के जिंदा रहते, बल्कि उनकी जवानी के दिनों में भी चला करते थे...

लेखक ने कहा, हां, किस्से चलते थे और उनमें कुछ सच भी होते थे, लेकिन मेरी पत्नी को उनसे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। मेरी पत्नी का अलग से कोई किस्सा मैं नहीं जानता, लेकिन अगर ऐसा होता तो मुझे भी उससे कोई परेशानी नहीं होती। साझा मिट्टी का जो प्यार होता है, वह शायद ऐसा ही होता है। इसीलिए मुझे लगता है कि प्यार तो मैंने सिर्फ उसी से किया।

मैंने लेखक से उसकी पत्नी के दुख के बारे में पूछा।

उसे बच्चे का दुख था। हमारा बच्चा एक-डेढ़ साल का होकर नहीं रहा। कोई आलमारी साफ करते हुए, बक्सा झाड़ते हुए अब भी उसका कोई मोजा या कोई खिलौना निकल आता था तो कई-कई दिन रोती रहती थी। शाम होने के बाद घर में अकेली होती तो वैसे भी उसका दुख उभर आता था। इसीलिए रोजाना पीने-पिलाने की आदत के बावजूद मैं उसके रहते अपनी शामें बाहर नहीं गुजार पाता था।

बच्चे के बारे में काफी पहले एक बार और हमारी बात हो चुकी थी। तब पत्नी जिंदा थीं और उनके लंबे अवसाद से लेखक बुरी तरह पिनका हुआ था। कैसी सपने की संपत्ति में उलझी रहती है। कहां का साला बच्चा, कब आया, कब का चला गया, लेकिन यह है कि बंधी बैठी है...

मैंने कहा, बच्चे के बारे में इज्जत से बात कीजिए। वह क्या था, क्या नहीं था, यह कोई मामला नहीं है। वह न होकर भी आपके लिए होने वालों से बढ़कर है। आपकी जैसी जिंदगी रही है, उसमें उसी बच्चे ने आपको कमीना हो जाने से बचा लिया। आपका जो भी बड़प्पन है, उसी की वजह से है, वरना आप जैसे कितने लोग साहित्य की गलियों में धांधल मचाए फिरते हैं।

यह भावातिरेक में कही गई बात थी। किसी का भी बड़प्पन किसी और की वजह से नहीं, अंततः अपनी ही वजह से होता है। लेकिन लेखक खामोश हो गया- कुछ इस तरह जैसे मैंने कोई बहुत बड़ी बात कहकर उसे निरुत्तर कर दिया हो।

लेखक से मेरी बातचीत इसी तरह अक्सर क्रूरता की हद तक पहुंच जाती है और उसकी तकलीफ जब मेरे मन को रेगमाल की तरह रगड़ने लगती है तब मैं उसे जैसे-तैसे एक छोटा-सा हवाई जहाज बनाकर उड़ा देने की कोशिश करता हूं।

मैंने कहा, मेरी छठीं इंद्रिय बता रही है कि वह अब बस सीढ़ी से उतरने ही वाली है और आप मुझे मेरे हाल पर छोड़कर उसके साथ रेस्टोरेंट निकल जाने वाले हैं। संयोग ऐसा कि अगले तीन मिनट के अंदर यह बकवास सही साबित हो गई।

3 comments:

L.Goswami said...

aap is mah ki कादम्बिनी pdiye usme taslima jee ka lekh lekhkon ke bare me..achchhi schchai btai hai unhone.

बोधिसत्व said...

चंदू भाई कोई टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं ङूँ...

Priyankar said...

अद्भुत !