Wednesday, March 5, 2008

कुछ न होगा तो भी कुछ होगा

सूरज डूब जाएगा
तो कुछ ही देर में चांद निकल आएगा

और नहीं हुआ चांद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रोशनी बिखेरते हुए

और रात अंधियारी हुई बादलों भरी
तो भी हाथ-पैर की उंगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे

और टटोलने को कुछ न हुआ आसपास
तो आवाजों से एक-दूसरे की थाह लेते
एक ही दिशा में हम बढ़ते जाएंगे

और आवाज देने या सुनने वाला कोई न हुआ
तो अपने मन के मद्धिम उजास में चलेंगे
जो वापस फिर-फिर हमें राह पर लाएगा

और चलते-चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह खुद को लपेटता दिखेगा-
आगे बढ़ना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा...

...तब कोई याद हमारे भीतर से उमड़ती हुई आएगी
और खोई खमोशियों में गुनगुनाती हुई
उंगली पकड़कर हमें मंजिल तक पहुंचा जाएगी

10 comments:

यशवंत सिंह yashwant singh said...

सर, जो भी हो, जैसा भी हो, जितना भी मुश्किल हो.....डरना, झुकना,मुड़ना मंजूर नहीं....बंद हैं तो और भी खोजेंगे हम, रास्ते कम नहीं तादाद में....

अंतिम छह लाइनें बेहद शानदा हैं, प्रेरणा परक हैं, ऐसी लाइनें व कविताएं ही तो हम भड़ासियों को चाहिए....। कविता बढ़ने के बाद कमेंट करने से खुद को रोक न सका।
जय भड़ास
यशवंत

चंद्रभूषण said...

शुक्रिया यशवंत, अंधेरों से बार-बार सिर टकराकर उजाला खोजने वालों के लिए ही तो यह कविता है।

Unknown said...

सही में आशा लिखी है गुरुदेव - चाँद, तारे और मन के मद्धिम उजास - बड़े मलहम से रखे हैं घने कोहरे में - यही तो आपको बांचने का आनंद है - मनीष

azdak said...

मंज़ि‍ल तक न भी पहुंचाये.. कहीं से कहीं पहुंचाती जाये.. फिर भी कुछ न होते हुए कुछ तो होता ही होगा?

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छी रचना ।
घुघूती बासूती

चंद्रभूषण said...

जहां पहुंचना है, सिर्फ वही नहीं, जहां पहुंचते हैं, वह भी मंजिल होती है।

Unknown said...

hm bhi idhr aaye sir g...aapki kvita ki kdr me...achchha ba ho..nik lagl

चंद्रभूषण said...

कैसे हो हरे बाबू? पहली बार तुम इधर आए, अच्छा लगा।

Unknown said...

hm achchha se bani sir g, kuchh aaur kvita padhaeena

हरिमोहन सिंह said...

इस तरह की कविता को क्‍या कहते है