Thursday, February 21, 2008

तो सहर देखेंगे

अभी तो इतना दिन था। अचानक रात कैसे हो गई? जरा कोई बत्ती तो जलाओ। और लो, वह क्या चमक रहा है आसमान में इतना बड़ा- आंखों में साफ चुभता हुआ सा? चीजें भी सारी दिखाई दे रही हैं, लेकिन अंधेरा कहां से चला आ रहा है इतना?

सभी बेधड़क इधर से उधर आ-जा रहे हैं। लेकिन वे इतने गौर से मुझे क्यों देख रहे हैं? क्या उन्हें पता है कि मैं...?

मुझे अब कहीं छुप जाना चाहिए। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि जहां मैं छिपूं वहीं घेरा पड़ जाए। मैं जानता हूं। वे उस जगह को हर तरफ से बंद कर देंगे और फिर इंतजार करेंगे। विकल्प कितने सीमित हैं। लोगों से बचो तो दम घुटने से मारे जाओ।

अब छुपने की जगह खोजना बेकार है। मुझे अपने ही अंधेरे में छिपना होगा। यह ज्यादा गहरा भी है। कोई मुझे यहां देख नहीं पाएगा। खतरा सिर्फ कभी-कभी खुद को दिख जाने का है लेकिन बाहर छुपने से तो यह अच्छा ही है।

और यह गिरने जैसा क्या है? मैं कहां से गिर रहा हूं? गिरकर जा कहां रहा हूं?

छत से गिराए पत्थर की तरह अंधेरे में हजारों फुट गिरना, धक से ठहर जाना, शून्य में आंखें फाड़े हर तरफ चकर-पकर देखना, फिर गिरते चले जाना...

और यह नाभि के नीचे से उठती हुई सपनीली धुन, किसी फंसे हुए रिकॉर्ड पर बजता हुआ सा एक टुकड़ा- आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे....तो सहर देखेंगे....

क्या यह मौत का पड़ोस है? क्या इस मुकाम तक पहुंचने का मौका दुनिया में सिर्फ मुझे ही हासिल हुआ है? मैं इसके बारे में जल्द से जल्द सबको बताना चाहता हूं। बस किसी तरह उजाला होने तक बच जाऊं। किसी से कुछ कहने या कुछ लिखने का मौका मिल जाए।

लेकिन क्या इस अंधेरे में कहीं कोई रोशनी भी है? इस गिरावट का कहीं कोई अंत भी है? ओह, यह आवाज कितनी डरावनी है....आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे....आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे....

2 comments:

Unknown said...

!!!!! - ?????- ठाड़े रहिये और बैद हकीम समझें !!! - अभी शतरंज खेलने में दिन हैं - लेकिन क्या खौफ लिखा है - मनीष

चंद्रभूषण said...

प्यारे भाई, यह खौफ अब से करीब आठ साल पहले होली के दिन खाई गई दो भांग-कुल्फियों की सहायता से अर्जित किया गया था, हालांकि उसे पूरा-पूरा पकड़ पाने के लिए यह जगह और अपनी कलम, दोनों छोटी पड़ती हैं।