Tuesday, April 22, 2014

धीरे चलो

धीरे चलो
इसलिए नहीं कि बाकी सभी तेज-तेज चल रहे हैं
और धीरे चलकर तुम सबसे अलग दिखोगे
इसलिए तो और भी नहीं कि
भागते-भागते थक गए हो और थोड़ा सुस्ता लेना चाहते हो

धीरे चलो
इसलिए कि धीरे चलकर ही काम की जगहों तक पहुंच पाओगे
कई चीजें, कई जगहें तेज चलने पर दिखतीं ही नहीं
बहुत सारी मंजिलें पार कर जाने के बाद
लगता है कि जहां पहुंचना था, वह कहीं पीछे छूट चुका है

धीरे चलो
कि अभी तो यह तेज चलने से ज्यादा मुश्किल है
जरा सा कदम रोकते ही लुढ़क जाने जैसा एहसास होता है
पैरों तले कुचल जाना, अंधेरे में खो जाना, गुमनामी में सो जाना
इन सबमें उससे बुरा क्या है, जहां तेज चलकर तुम पहुंचने वाले हो?

8 comments:

Anju (Anu) Chaudhary said...

बेहतरीन सोच

richa shukla said...

great thoughts..

http://prathamprayaas.blogspot.in/-सफलता के मूल मन्त्र

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब ... अलग तरह कि सोच से निकली रचना ...

azdak said...

मगर जो ठहरे हुए दौड़ रहे हैं उनका क्‍या. माने दौड़ते हुए पूछ रहे हैं.

कौशल लाल said...

बहुत सुन्दर..

रश्मि शर्मा said...

बहुत सुंदर सोच

SKT said...

सही फ़रमाया,'चीता'(भेड़ का विलोम)चाल से चल कर भी वहीँ पहुँचाना है तो जल्दी क्या है? मंजिल मरीचिका है, सफर हक़ीक़त.

SKT said...

सही फ़रमाया, 'चीता' ( भेड़ का विलोम) चाल से चल कर भी वहीँ पहुँचाना है तो जल्दी क्या है? मंजिल मरीचिका है, सफर हक़ीक़त.