Friday, July 27, 2018

क्या?

कोई-कोई वक्त होता है
जब बाथरूम की छत टपकने लगती है
कई-कई बार ठीक कराने के बाद भी 
टोटके की तरह टपकती ही जाती है


कोई-कोई वक्त होता है
जब कौए आस-पास मंडराने लगते हैं
कभी गाड़ी से टकराकर टपक जाते हैं
कभी सिर पर बीट टपका जाते हैं
कोई-कोई वक्त होता है
जब सारे दोस्त-मित्र, सभी नजदीकी जन
घनिष्ठतम बातचीत या शायद सपने में भी
'मैं-मैं और केवल मैं' बुदबुदाने लगते हैं
कोई-कोई वक्त होता है
जब पैरों के नाखून काटते हुए
कच्च से उंगली कट जाती है
और हफ्ता दस दिन पंद्रह दिन
खून धीरे-धीरे रिसता ही रहता है
ऐसे नामुराद लम्बे गंदे वक्त
कहती-सुनती तो बहुत कराते हैं
पर जो भी इनके ककून में कैद हो
उसकी समझ में कहां आते हैं?
अनजान लोगों से बातें करना
बचपन से ही अच्छा लगता था
झगड़े के डर से अब नहीं करता
टीवी पर खबरें देखना छोड़ दिया है
अखबार भी कल से नहीं पढूंगा-
रोज ठानता हूं रोज भूल जाता हूं
चोरी-डाका हत्या-बलात्कार दंगा-फसाद
पीटते-पीटते किसी को मार ही डालना
इस सबसे खास परेशानी कभी रही नहीं
यह मेरी दुनिया है, यही रोजी-रोटी है
इससे भाग कर जाऊंगा भी तो कहां?
इस बेदर्द बेहिसी के बावजूद
दिन-रात जो मुझे उलझाए हुए है
जान नहीं पाता कि वह चीज क्या है
किसी और तरह के दौर की आहट?
जिससे होकर गुजरना तो दूर
जिसके आने का ढब समझना भी
मेरी समझ के बूते से बाहर है?
झल्लाहट का एक अदृश्य रोडरोलर
अंदर-बाहर के नक्शे पर दौड़ रहा है
शिनाख्त जिसकी मेरे जैसों के भीतर
स्नायुरोग हृदयरोग सिफलिस मनोरोग
या खुजली की शक्ल में ही हो पाती है
सवाल मेरे सामने यह है कि
भीतर-बाहर एक साथ चल रहे
इस जानलेवा घपले को मैं क्या कहूं
सुदूर अंतरिक्ष से आया एलियन इनफेक्शन?
या बड़ी पूंजी की खुली लूट का जरिया बनी
बहुसंख्यकवादी राजनीतिक गिरोहगिरी?
या 'टिपिंग ओवर' के बाद की ग्लोबल वार्मिंग?
या सबको फंसा लेने वाला कोई मोहनी मंत्र?
जो भी कहूं पर समझ में घुसता नहीं
यह आता हुआ दौर, यह नामुराद वक्त
‘क्या धोऊं क्या निचोड़ूँ’ वाला यह बाथरूम
जिसकी छत लगातार टपकती ही जाती है

No comments: