2015 में आइंस्टाइन ने जनरल थिअरी ऑफ रिलेटिविटी के तहत अपनी तरफ से अकाट्य ढंग से स्पेस-टाइम (देश-काल) संजाल की संकल्पना दी थी। एक ऐसी चीज, जो खुद में कुछ भी नहीं है, लेकिन जो हर जगह, हर चीज में, हर समय में समान रूप से फैली हुई है। भारतीय दर्शन में पंचम तत्व आकाश की व्याख्या कुछ-कुछ इसी रूप में की जाती है, लेकिन समय वहां नदारद है। आइंस्टाइन के यहां आकाश और समय आपस में जुड़े हुए हैं, एक ही अमूर्त व्यक्तित्व के अलग-अलग चेहरों की तरह। और सबसे बड़ी बात यह कि भारतीय दर्शन का आकाश एक सर्वव्यापी स्थिर तत्व है, जबकि आइंस्टाइन का देशकाल फैलता-सिकुड़ता है। यहां तक कि इसमें छेद भी हो सकता है।
उस समय ही आइंस्टाइन का कहना था कि किसी बहुत भारी पिंड को, सूरज से कई गुना भारी पिंड को अगर बहुत ज्यादा त्वरण मिल जाए, यानी उसकी रफ्तार अचानक बहुत ज्यादा बढ़ जाए तो वह देशकाल में ऐसी विकृति ला सकता है, जो अबाध रूप से आगे बढ़ती हुई एक तरह की तरंग जैसी शक्ल ले सकती है। यह बात आम समझ से परे है। अव्वल तो उस समय तक ऐसे किसी पिंड और उसे मिल सकने वाले इतने बड़े त्वरण की कल्पना करना भी लगभग असंभव था। फिर, मान लीजिए, ऐसी अनहोनी हो ही जाए, तो स्पेस में आने वाले किसी फैलाव या सिकुड़ाव क नापा कैसे जाएगा? जिस भी पैमाने से इसे नापना होगा, क्या वह खुद भी उतना ही फैल या सिकुड़ नहीं जाएगा?
यह उधेड़बुन आखिरकार 2015 में खत्म हुई और पिछले साल, यानी 2016 में पहली बार गुरुत्वीय तरंग की शिनाख्त का प्रकाशन हुआ। पता चला कि 30 सूर्यों के आसपास- एक थोड़ा कम, एक थोड़ा ज्यादा- वजन वाले दो ब्लैक होल एक अरब तीस करोड़ प्रकाश वर्ष दूर एक-दूसरे के करीब आते हुए रोशनी की आधी रफ्तार (एक सेकंड में लगभग डेढ़ लाख किलोमीटर) से घूमने लगे और फिर आपस में मिलकर एक हो गए। इस क्रम में ऊर्जा कितनी निकली- सेकंड के भी एक बहुत छोटे हिस्से में इतनी, जितनी तीन सूर्यों को पूरा का पूरा ऊर्जा में बदल देने पर निकल सकती है। इतनी भीषण घटना से देशकाल में पैदा हुई जो थरथरी एक अरब तीस करोड़ वर्षो में चल कर धरती तक पहुंच पाई, उसका आकार इतना छोटा था कि हमारा दिमाग उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। यूं समझें कि सूरज से धरती तक का आकाश इसके असर में जरा देर के लिए एक परमाणु बराबर सिकुड़ गया।
बहरहाल, शुरू में कुछ लोगों ने यह भी कहा कि संभव है, यह थरथरी किसी और हलचल से पैदा हुई हो। लेकिन पिछले डेढ़-दो वर्षों में यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते कुछ दिन पहले चौथी तरंग के प्रेक्षण तक पहुंचा और यह तय हो गया कि आने वाले दिनों में विज्ञान की कुछ सबसे बड़ी सनसनियां गुरुत्वीय तरंगों के जरिये रचे जाने वाले खगोलशास्त्र के ही हिस्से आने वाली हैं। लेकिन इससे खगोल विज्ञान की सेहत फर्क क्या पड़ेगा? सबसे पहला तो यह कि आर्यभट से लेकर आज तक का खगोलशास्त्र पूरी तरह रोशनी पर निर्भर है, जो खुद में बहुत भरोसेमंद जरिया नहीं है। स्पेक्ट्रोमेट्री और एक्स-रे, गामा-रे टेलिस्कोपों के साथ भी यह सीमा जुड़ी है कि कुछ मामलों में उनके नतीजे बहुत धुंधले हो जाते हैं। जैसे, ब्लैक होल को ही लें तो उससे कोई रोशनी बाहर ही नहीं आती, लिहाजा अटकलबाजी के सिवाय वहां ज्यादा कुछ करने को होता ही नहीं।
इसके विपरीत गुरुत्व तरंगें किसी भी जिंदा या मुर्दा तारे की परवाह नहीं करतीं। वे खाली जगहों से भी उतनी ही आसानी से गुजरती हैं, जितनी आसानी से महाशून्य (द ग्रेट वॉयड) से। इन्हें धोखा देना या अपने दायरे में जकड़कर बाहर निकल जाने देना सृष्टि के सबसे बड़े ब्लैक होल के भी वश की बात नहीं है। कुछ वैज्ञानिक तो इतने आशावान हो चले हैं कि उन्हें लगता है, भविष्य की गुरुत्वीय तरंग वेधशालाएं सृष्ठि के आरंभ बिंदु ‘बिग बैंग’ का भी कुछ हाल-पता ले सकती हैं, जहां तक पहुंचने की उम्मीद भी किसी टेलिस्कोप से नहीं की जाती। असल में, ब्रह्मांड की बिल्कुल शुरुआती रचनाएं भी बिग बैंग से कम से कम चार लाख साल बाद की हैं। तो नोबेल प्राइज की खबरों में ही न डूबे रहिए। मजे लीजिए, नजर के सामने खुल रहे इस नए शास्त्र के, जिसे कल तक कल्पना से भी परे माना जाता था।
1 comment:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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