Tuesday, June 27, 2017

धर्मांधता के विरोध का एक अलग रास्ता है कांदीद


अब से कोई 250 साल पहले दक्षिणी फ्रांस में धर्मांध ईसाइयों ने एक तर्कवादी नौजवान को पकड़ कर धार्मिक अदालत में उस पर धर्मद्रोह का मुकदमा चलाया, और फिर एक ठूंठ से बांधकर उसे जिंदा जला दिया। बात चिंतक, दार्शनिक और लेखक वॉल्तेर तक पहुंची तो इसी आघात में उन्होंने अपना कमरा भीतर से बंद कर लिया और 72 घंटे तक बाहर ही नहीं निकले। आखिरकार वे निकले तो उनके हाथ में स्याही की दावात में पंख डुबो-डुबो कर लिखे हुए कागजों का एक पुलिंदा था, और भीतर इतनी सारी थकान कि बाहर निकलते ही बेहोश हो गए। सन 1759 में आई उनकी इस रचना को हम कांदीद के नाम से जानते हैं, जिसे ब्रिटिश आलोचक मार्टिन सेमूर स्मिथ ने अब से कोई बीस साल पहले जारी दुनिया की 100 सबसे असरदार किताबों की सूची में शामिल किया।
हर पंक्ति में चौंकाने और हंसाने वाले इस पतले से उपन्यास का बहुत पुरानी छपाई वाला एक फटा-चिटा संस्करण इलाहाबाद में संभवत: 1985 में मेरे हाथ लगा था। उसका अनुवादक और प्रकाशक कौन था, इसका कोई जिक्र किताब में मिलने का सवाल ही नहीं था। लेकिन आज भी यह सोचकर हैरानी होती है कि ऐसे मौलिक किस्म के अनुवाद कभी हिंदी में आया करते थे। बाद में इसी किताब का चटख-चमकीला सजिल्द संस्करण 1997 में मुझे दिल्ली में मिला, लेकिन इसमें वह बात नहीं थी। न भाषा की रवानी, न कथ्य की समझ। और कीमत ऐसी कि खरीदने से पहले कोई चार बार इधर-उधर देखे। साफ था कि जो प्रेरणा कांदीद को कभी फ्रेंच से हिंदी में लाई होगी, वह भारतीय समाज की बहुत सारी अच्छी चीजों की तरह बीच के सालों में कहीं गुम हो चुकी थी।
बहरहाल, कांदीद की कहानी पर बात करते हैं। एक खानदानी नौजवान कांदीद किसी लड़की से प्रेम करता था। लड़की के बाप की नामंजूरी के बावजूद दोनों की शादी भी होने वाली थी, लेकिन एक तूफानी घटना प्रवाह में लड़की बिना कोई संदेश छोड़े कहीं गुम हो गई और कांदीद का दिल बुरी तरह टूट गया। अथाह हताशा से घिरे हुए इस युवक की मुलाकात दार्शनिक पांग्लोस से हुई, जो गणितज्ञ दार्शनिक लाइबनिज के विचारों से प्रभावित थे। लाइबनिज की ख्याति न्यूटन के समानांतर ‘डिफरेंशियल कैलकुलस’ की खोज करने वाले जीनियस के अलावा एक आशावादी दार्शनिक के रूप में भी है, यह बात मुझे अभी हाल में पता चली। उनके दर्शन का सूत्रवाक्य यह है कि ‘सभी संभव दुनियाओं में यह दुनिया सबसे अच्छी है।’ और यह भी कि ‘जो भी होता है, वह अच्छे के ही लिए होता है।’ इन सूत्रवाक्यों की पांग्लोसियन व्याख्याएं भग्नहृदय कांदीद को अपने दिल पर मरहम सरीखी लगीं। वॉल्तेर का उपन्यास गुरु और शिष्य के कुछ ऐसे ही निर्दोष संवादों से होता है।
पांग्लोस बताते हैं कि इंसान के पैर इस तरह वक्राकार इसलिए बनाए गए, ताकि वे जूतों में अच्छी तरह अंट सकें, और कांदीद को अपनी प्रेमिका का बिछोह इसलिए झेलना पड़ा, ताकि वह स्वयं पांग्लोस जैसे महा आचार्य का शिष्य बन सके। कांदीद अपने गुरु की बातें श्रद्धापूर्वक सुनता है, लेकिन बीच-बीच में ऐसी टिप्पणियां भी करता है, जिससे उसके दिल के दाह का अंदाजा लगाया जा सके। स्वयं आचार्य भी बीच-बीच में उसके इन जले-बुझे सवालों से छनछना जाते हैं, लेकिन उनके भोजन-पानी की व्यवस्था शिष्य कांदीद के ही जिम्मे है, लिहाजा उसे लतिया कर भगा देना भी उनके बूते से बाहर है। किताब बहुत पहले पढ़ी हुई है, लिहाजा कहानी में कुछ टेढ़ भी हो सकती है, लेकिन जहां तक याद पड़ता है, यह गुरु-शिष्य युगल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर कांदीद की प्रेमिका को ढूंढने और खुद के लिए सुख-चैन की जिंदगी तलाशने के लिए दर-दर भटकता है। यहां तक कि एक बार उसे एक बेहद कष्टसाध्य समुद्री यात्रा पर भी निकलना पड़ता है।
इस दौरान आचार्य पांग्लोस हर अच्छी-बुरी चीज का आशावादी औचित्य बताते हैं, जबकि कांदीद उनके फूले हुए दार्शनिक गुब्बारे को अपनी तीखी यथार्थवादी टिप्पणियों से पंचर कर देने का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं देता। इस पूरे किस्से का समय क्या है, इसका अंदाजा किताब से लगाना मुश्किल है। लेकिन इसमें 1755 में पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में आए एक भीषण भूकंप का भी जिक्र है, जिससे लगता है कि यह एक रीयल-टाइम नॉवल है। बिना किसी घोषित दार्शनिक विमर्श के इस उपन्यास में हर पवित्र चीज की धज्जियां उड़ाई गई हैं। ईसाइयत की, इस्लाम की, अठारहवीं सदी की तमाम यूरोपीय सरकारों की- जिनमें ब्रिटेन को छोड़कर सब की सब विशुद्ध सामंती सत्ताएं ही थीं। हालांकि ब्रिटेन की संसदीय राजतांत्रिक व्यवस्था को लेकर भी इसमें कोई अच्छी राय नहीं है। और तो और, परिवार और प्रेम जैसी पवित्रतम संस्थाओं को भी ‘कांदीद’ में बख्शा नहीं गया है।
हर तरफ से लात-जूते खाकर कांदीद अपनी कटखनी प्रेमिका और घोंचू दार्शनिक गुरु के साथ जब महानगरों से दूर एक छोटे से गांव में बसने का फैसला करता है तो मौका देखकर गुरुवर पांग्लोस उसे अपने अंतिम दार्शनिक निष्कर्ष से अवगत कराते हैं- ‘यह ठीक है कि इस कठिन जीवन अनुभव में तुम्हारी प्रेमिका का एक नितंब काट लिया गया, तुम्हारी एक आंख तिरछी देखने लगी और मुझे अपनी एक टांग गंवानी पड़ी, हम सब अपने मुल्क से दर-ब-दर होकर, अपनी जड़ों से कट कर इस अनजानी जगह बसने को मजबूर हैं, लेकिन अंतत: सब कुछ अच्छे के ही लिए होता है, क्योंकि यह सब न होता तो हमें इतने मीठे अंजीर कैसे खाने को मिलते?’ उनके इस दार्शनिक उत्साह को कांदीद उपन्यास के इस अंतिम वाक्य से ठंडा कर देता है कि- ‘वह सब तो ठीक है गुरुजी, लेकिन खुरपी आप जरा अच्छे से चलाइए। मैं देख रहा हूं कि खेतों से घास निकालने के काम में पिछले कई दिनों से आप पर्याप्त चुस्ती नहीं दिखा रहे।’
अन्याय-अत्याचार का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने या इसके विरोध में हथियार उठाने की बात तो बहुत लोग करते हैं, लेकिन इसका एक तरीका वॉल्तेर का भी था, जिस पर किसी का ध्यान नहीं है। धर्मांध ईसाइयों के हाथों मारे गए उस निर्दोष तर्कवादी नौजवान की मृत्यु का बदला वॉल्तेर ने अपनी इस किताब के रूप में इतने मार्मिक ढंग से लिया कि यथार्थ पर धारणाओं को तरजीह देने वाली सोच के खिलाफ ‘कांदीद’ को आज भी सबसे मजबूत औजार समझा जाता है। कवि त्रिलोचन कहा करते थे, अन्याय-अत्याचार से लड़ने का एकमात्र साहित्यिक तरीका व्यंग्य का है। इसीलिए वे दलित और अल्पसंख्यक साहित्यकारों को धीरज के साथ व्यंग्य की साधना करने की सलाह देते थे। लेकिन इस रास्ते पर कामयाबी के साथ आगे बढ़ता हुआ अभी तक तो कोई नहीं दिख रहा।

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