Monday, November 23, 2015

सुन और लिन

शायद कुछ लोग रात में दो बजे प्लेन पकड़ने के झंझट से भी चीन जाने का फैसला मुल्तवी कर देते हों। हमारे पास ऐसा कोई विकल्प नहीं था। बेवकूफों की तरह ऊंघते हुए हम चार जन इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के वेटिंग लाउंज में अपनी फ्लाइट का इंतजार कर रहे थे। मेरी दिली ख्वाहिश थी कि नागालैंड के जंगलों को ऊपर से उड़ते हुए देखूं। लेकिन इसका कोई मौका नहीं था। सीट के सामने उड़ान का नक्शा और नीचे का नजारा दिखा रहे टीवी में दिल्ली से उड़ने के कोई दो घंटे बाद सीधे भागलपुर दिखाई पड़ा, फिर भोर में पांच बजे के आसपास बांग्लादेश का मैमनसिंघ जिला नजर आया।

इस बीच सारी उत्सुकता के बावजूद मैं न जाने कितनी बार सो और जाग चुका था। देश से बाहर निकल जाने की शुभ सूचना मैंने एसएमएस के जरिये घर भेजनी चाहिए। लेकिन वह मेसेज अगले एक हफ्ते तक ड्राफ्ट के रूप में मेरे ही फोन में पड़ा रहा, वहां से हिलने का नाम तक नहीं लिया। दरअसल मैमनसिंघ भी मुझे दिखता नहीं। वह तो बाहर से आ रही तेज धूप से मेरी आंख खुल गई थी। मुझे लगा, कुछ धोखा हुआ है। मेरी घड़ी सुबह के पांच बजा रही थी। शंका समाधान के लिए मैंने खिड़की पर लगे स्लाइडर को जरा सा सरकाया तो अगल-बगल से गालियों की एक तीखी बौछार सी मुझ पर पड़ी। बाहर वाकई बहुत तेज धूप खिली हुई थी। कुछ तो यह हमारे ढाई हजार किलोमीटर पूरब सरक जाने का नतीजा होगा और कुछ जमीन से 11 किलोमीटर की ऊंचाई का।

खिड़की का ढक्कन दोबारा बंद करने के बाद नागालैंड वाली प्रतिज्ञा एक बार फिर याद आई, लेकिन फिर लगा कि देखने को कुछ मिलेगा नहीं, गालियां ऊपर से खानी होंगी। सो खुद को निद्रादेवी के हवाले कर देना ही बेहतर लगा। पेइचिंग पहुंचने में हमें लगभग चार घंटे और लगने वाले थे। जितनी भी नींद निकल जाए उतना अच्छा। बीच में एक बार जरा सी नींद खुली तो लगा कि सामने की टीवी स्क्रीन पर कुनमिंग जैसा कुछ लिखा है। इस शहर का नाम सुनते आए हैं। माओ त्से तुंग और उनकी लाल फौज के लांग मार्च और दूसरे विश्वयुद्ध से जुड़े कई अन्य प्रसंगों में। यहां आंख खुलने की वजह जहाज को लगे दो-तीन झटके बने थे। अटपटी सी अंग्रेजी में कोई बोला कि जहाज एयर डिस्टर्बेंस से गुजर रहा है, असुविधा के लिए हमें खेद है। खेद मैंने चुपचाप स्वीकार कर लिया, जरा सा स्लाइडर हटाकर बाहर बादलों की भरमार देखी और नींद जारी रखने का फैसला किया।

करीब दो घंटे बाद जहाज की रफ्तार कम होती सी लगी। ‘हम अगले आधे घंटे में पेइचिंग के फलां हवाई अड्डे पर लैंड करने वाले हैं...ब्ला-ब्ला-ब्ला’। हमें पता था कि हमारे पेइचिंग पहुंचने का समय दोपहर साढ़े ग्यारह बजे का है। जहाज में बिताया गया समय लगभग सात घंटे, हकीकत में गुजरा समय साढ़े तेरह घंटे। सब धरती माता की महिमा है। उनके घूमने की दिशा जहाज वाली ही थी, हालांकि उनकी रफ्तार जहाज से कहीं ज्यादा थी। चीनी जहाजों के पाइलट यात्रा से जुड़ी सूचनाएं बहुत प्रफेशनल अंदाज में, बिना किसी हड़बड़ी के, लेकिन सामान्य से कुछ ज्यादा ही ऊब के साथ पहले चीनी और फिर अंग्रेजी में देते हैं। यह किसी एक फ्लाइट का मामला नहीं है। यात्रा के दौरान सात-आठ बार हुए ठीक ऐसे ही अनुभव के बाद यह बात कह रहा हूं।

जहाज से उतरने के बाद न जाने कितना लंबा रास्ता पार करके हम चेक-आउट काउंटर पर पहुंचे। सामान छुड़ाकर बाहर निकलते-निकलते एक बज गया था। वहां भीड़ में तख्तियां हिलाते मिले हमें सुन लिनहू, चीन के विदेश विभाग के एक लायजां अधिकारी। उन्होंने हमारा परिचय कराया दुबली-पतली लड़की ल्यू ख उर्फ लिन से। दोनों चश्माधारी थे। भारत सरकार के किसी भी वर्ग-3 कारकुन की तरह दोनों की शक्ल पर लगभग स्थायी रूप से बारह बजे रहते थे। दोनों अगले एक सप्ताह तक हमारे साथ हमारी यात्रा में सहायक, सहयोगी और मार्गदर्शक की तरह मौजूद रहने वाले थे। उनकी अतिरिक्त जिम्मेदारी शायद हम पर नजर रखने की भी रही हो। लेकिन हमारी टीम के एक सदस्य की टिप्पणी थी कि हमारी वजह से इन दोनों सरकारी कर्मचारियों की दो छुट्टियां बर्बाद होने वाली हैं- दो इतवार, जो इनके लिए कितने कीमती होंगे!        
        

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