Tuesday, February 5, 2013

जागना

बारिश बंद हो चुकी है

तयशुदा रस्ते पर छिपता-निकलता
बढ़ रहा है देर रात का चटख-चौकन्ना चांद
बिखरे बादलों की गझिन छाया में
सेवार भरे पोखरे का निपट काला जल
और भी काला होकर थरथरा रहा है

पोखरे पर लटकी महुए की डाल से
देर तक चिपकी एक बूंद ने
सहसा बढ़कर किनारे की कीच के बजाय
पोखरे में ही टपकने का फैसला किया है

छोटी-छोटी लहरें, हल्की हवाएं
कोइंयों के चिकने पत्ते हिला रही हैं
ऐसी ही हिलती हुई झक्क सफेद
तुरंत खिली एक कोईं के पीले पराग पर
थककर बिलमाया सा मैं सोया हुआ हूं

इतने सौंदर्य इतने सुकून के बाद भी
जाने का नाम क्यों नहीं लेती
दिल के भीतर पैठी हुई थकान?

कहीं कोई शोर कोई हमला नहीं
कोई सी भी राह कोई फैसला नहीं
तो किस बेचैनी में मैं आंखें खोलता हूं?

खोलता हूं आंखें रात के पार
उन उनींदी सुबहों में
उन्हीं अबोध रातों की याद में
जब मां मुझे अपने भीतर पाकर
उम्मीद से गुनगुनाती थी

मूंदता हूं फिर यह जानकर
कि सपने सा जो घटा है
बंद आंखों के सामने
आखिरी रात का नहीं 
सिर्फ एक बारिश का किस्सा है



2 comments:

रश्मि प्रभा... said...

बारिश की बूंदें और कितनी सारी यादें .... ना कहें तो मन की कहानी से अनभिज्ञ होते हैं लोग,बस रूकती बरसती बारिश रह जाती है साथ

रश्मि प्रभा... said...

सम्भव हो तो "Rashmi Prabha" , पर सम्पर्क करें