ट्रेन अगर सामने खड़ी हो
तो अगली वाली में
पसर कर जाने की उम्मीद में
उसे हरिगज मत छोड़ना।
अक्सर तो अगली ट्रेन
वक्त पर आती नहीं
आती भी है तो
पहली वाली से ज्यादा भरी होती है।
यही नहीं, कभी-कभी तो वह
जैसे सिर्फ तुम्हें चिढ़ाने के लिए
रुक-रुक कर चलती है।
ड्राइवर को जुलाब पड़ने लगते हैं
और गार्ड के सिग्नल वाले हाथ में
जरा सी मोच आ जाती है।
जो लोग कहते हैं कि
उन्होंने भरी गाड़ी में कभी पांव ही नहीं रखा
उनकी बात कभी न सुनना
वे अपना तजुर्बा नहीं,
सिर्फ अपनी चाहत बयान कर रहे होते हैं।
मजा आराम से पसर कर बैठने में नहीं
भीड़ में चंपकर लोगों की बातें सुनने में है,
और खिड़की से ताकने का दांव लग जाए तो
बाहर ट्रेन से होड़ लगाते कबूतर को
पीछे छूटते देखने में।
इसलिए जिस दिन तुम्हारा दिल
आराम से पसरकर जाने का हो
उस दिन ट्रेन पकड़ने का इरादा छोड़ दो
और अपनी खटिया को ट्रेन समझकर
घर में ही लंबे से लंबा सफर तय करो।
6 comments:
बहुत खूब! :)
Apko vapas dekh kar khushi huyii. Ummed hai ab swasth honge!
bahut rochak aur sach likha hai.pahli baar aapke blog par aai hoon aakar achcha laga.milte rahenge.
बहुत खूब. सही कहा वक़्त इंतज़ार नहीं करता, वक़्त पर ही मज़ा ले लेना चाहिए आराम से सोचेंगे तो बस...ये ट्रेन भी गई दूसरी कब आये पता नहीं. अच्छी रचना, बधाई.
सुख की परिभाषा मन से ही आये, बाहर से नहीं।
@स्वप्नदर्शी- शुक्रिया। अपने मन का लिखना अभी भी टेढ़ा काम बना हुआ है, लेकिन हालत पहले से काफी बेहतर है।
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