Tuesday, May 24, 2011

लुरखुर लोरिक

चंडीगढ़ के आर्ट म्यूजियम में लौर-चंदा सीरीज की 14 फोलियो पेंटिंगें मौजूद हैं। 16वीं सदी में बनी चटख रंगों वाली इस कथा-आधारित अद्भुत चित्र श्रृंखला के बहुत सारे चित्रों में अब संभवतः सिर्फ 36 इस दुनिया में शेष बचे हैं, जिनमें बाकी के 22 पाकिस्तान में हैं। किसी ब्रिटिश म्यूजियम में भी कुछ फोलियो होने की बात कही जाती है, लेकिन इस बारे में ज्यादा जानकारी मेरे पास नहीं है। करीब पांच सौ साल पुरानी कॉमिक्स जैसी इस चीज में नायिका को तो राजपूत शैली की पेंटिंग की तरह गोरी और साफ नख-शिख वाली बनाया गया है, लेकिन नायक का रंग कत्थई के करीब पहुंचता हुआ सांवला है। कवच, कुंडल, मुकुट या अन्य किसी भी राजचिह्न का अभाव उसे उस दौर के नायकों से बिल्कुल अलग करता है।

लौर-चंदा या चंदायन 14वीं सदी में (कबीर के जन्म से भी पहले) फारसी की नस्तलीक लिपि में लिखी गई मुल्ला दाऊद की रचना है। राजकुमारी चंदा और अहीर योद्धा लोरिक की यह प्रेमकथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के अवधी और भोजपुरी क्षेत्रों में न जाने कब से कही-सुनी जा रही थी। रायबरेली के मुल्ला दाऊद ने इसे लिखित काव्य का रूप दिया और इस क्रम में जायसी और तुलसी की काव्य भाषा के रूप में अवधी के उदय की बुनियाद रखी।

इन किताबी सूचनाओं का मेरे लिए शायद कोई अर्थ न होता, अगर इनसे साबका पड़ना अचानक मेरे लिए मेरे बचपन की भूली-बिसरी यादों का एक झरोखा न खोल देता। गांव में हमारी गर्मियों की छुट्टियां गाय चराते ही गुजरती थीं, जो कभी मजा तो कभी सजा का सबब बना रहता था। इंसानी आंखों वाली एक दुबली-पतली बीमार सी गाय और उसकी एक वैसी ही बछिया हमारे पास थी। सुबह उन्हें खूंटे से खोलकर ऊसर की तरफ निकल जाता था। शरीर में ताकत अपने हमउम्र साथियों से कम थी और पता नहीं क्यों मुझे पीटने या तंग करने में उन्हें कुछ ज्यादा मजा भी आता था। लेकिन ऊसर के खेलों में फिसड्डी की तरह पीछे-पीछे लगे रहना चुपचाप घर में बैठे रहने से फिर भी कुछ बेहतर ही था।

मेरे लिए सुबह गाय चराने जाने का एक आकर्षण वहां लुरखुर काका से चनइनी सुनने का हुआ करता था, जो उसी चंदायन या लौर-चंदा का देसी नाम है, जिसका जिक्र इस टीप की शुरुआत में आया है। लुरखुर काका के चेहरे पर चेचक के हल्के दाग थे। पखवाड़े भर की बढ़ी हुई कच्ची-पक्की दाढ़ी उनके चेहरे पर सदाबहार दिखती थी और वह दोनों कानों में लुरकी (सोने की मुनरी) पहनते थे। जिस समय की मैं बात कर रहा हूं, उस समय उनकी उम्र चालीस के लपेटे में रही होगी।

बिल्कुल खड़ा शरीर और चलने का अंदाज ऐसा, जो उनके बाद कभी देखने को नहीं मिला। लगता था कि कमर के ऊपर का हिस्सा आगे-आगे चल रहा है और दोनों पैर पहिए की तरह अगल-बगल चलते जा रहे हैं। दौड़ना इस धज में उनके लिए चलने से कहीं ज्यादा आसान होता रहा होगा। रहंठा की एक खांची और खुरपी हमेशा उनके पास रहती थी। जहां भी दूब देखते थे, चुपचाप तपस्या की सी मुद्रा में छीलने बैठने जाते थे।

चनइनी या चंदायन सहज लोकबुद्धि और शारीरिक पराक्रम की कथा है। मुल्ला दाऊद की रचना कभी मेरे हाथ नहीं लगी, न ही आगे कभी लगने की कोई उम्मीद है, लेकिन लुरखुर काका से इसके इतने हिस्से सुन रखे हैं कि दो-चार बातें इसके बारे में आज भी बता सकता हूं। प्रेम इस काव्य में एक स्थायी लय की तरह बजने वाला भाव है और उसमें स्वकीया-परकीया जैसा कोई भेद नहीं है।

बुद्धि की पेचीदा कसरतों और घनी लड़ाइयों से ब्याह कर लाई गई मैना से लोरिक बहुत प्यार करता है, लेकिन गोभार रियासत के राजा सहदेव की बेटी चंदा से मिलने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। कहानी में एक बार लोरिक के लिए मैना औरे चंदा का दुर्धर्ष संघर्ष भी आता है, जिसमें एक कोइरी किसान की कई बिस्से में बोई गई सब्जियां बर्बाद हो गईं। श्रोताओं के लिए इस हिस्से का आकर्षण इस लड़ाई के दौरान दोनों नायिकाओं का लगभग निर्वस्त्र हो जाना हुआ करता था- अपने ढंग का आइटम नंबर।

(बाकी अगले अंक में)

5 comments:

चंद्रभूषण said...

पता नहीं क्यों इस टिप्पणी को ठीक से पोस्ट नहीं कर पा रहा हूं। एक घंटा दिमाग खपा चुका हूं। जो लोग पढ़ सकें वे जोड़-जाड़ कर पढ़ लें।

Smart Indian said...

बचपन में रेलवे स्टेशन से खरीदी लोरिक-चन्दा की याद आ गयी। काफी जानकारी मिली, धन्यवाद।

प्रवीण पाण्डेय said...

पहली बार पढ़ रहा हूँ, अच्छा लग रहा है.

rajesh yadav said...

very nice

anoushka shukla said...

लोरिक ने सर्पदंश की शिकार चन्दा के शव के साथ आत्मदाह कर लिया था इतिहास में किसी पुरुष के सती होने का यह अकेला उदाहरण है.