हर किसी के पास अपनी--अपनी कहानियां थीं
सौंदर्य की, आकर्षण की, लगाव की, वासना की, स्खलन की
प्रणय की, संवाद की, टकराव की, संघर्ष की, युद्ध की
लेकिन तत्व उनका कमोबेश एक सा था
कान तक प्रत्यंचा ताने जब वे वन में घुसे
तो उनके सामने लहर सी डोलती एक सुनहरी छाया थी
और उनकी आंखें अपने तीर की नोक और लक्ष्य के बीच
बनने वाली निरंतर गतिशील रेखा पर थरथरा रही थीं
लक्ष्य चूकने का कोई भय नहीं था
वह तो जैसे खुद ही हजार सुरों में बोल रहा था-
मुझे मारो, मेरा संधान करो, वध करो मेरा
चाहे जैसे भी मुझे स्थिर करो, अपने घर ले जाओ वीर
उत्तेजना का दौर खत्म हुआ, वे सभी विजेता निकले
किसी ने व्हार्टन मारा, किसी ने कैंब्रिज का संधान किया
कोई जापान की तरफ निकला, मरीन बायलॉजिस्ट बनकर लौटा
तो कोई पुलिस कमिश्नर बना, वर्दी पर टांचे वही सुनहरापन
मृग के मरने की भी सबकी अलग--अलग कथाएं थीं
सभी का मानना था कि मरने से पहले वह कुछ बोला था
शायद ‘मां’, शायद ‘पापा’, शायद- 'अरे ओ मेरी प्रियतमा'
या शायद 'समथिंग ब्रोकेन, समथिंग रॉटेन'
शाम ढले दरबार उठा, विरुदावली पूरी हुई
तो कोई भी उनमें ऐसा न था
जिसके पास भीषण दुख की कोई कथा नहीं थी
एक अदद बंद कोठरी जो हमेशा बंद ही रह गई
और खुली भी तो ऐसे समय
जब उसकी अंतर्कथा जानने के लिए
पुरानी परिचित बंद कोठरियां ही सामने रह गई थीं
मायामृग की सुनहरी झाईं एक बार फिर उनके सामने थी
क्षितिज पर रात की सियाही उसे अपने घेरे में ले रही थी
Wednesday, May 18, 2011
मायामृग
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9 comments:
मापके लिखे की जनमत के दिनों से प्रसंशक रही हूँ. ये कविता आपकी लिखी बहुत अच्छी चीज़ों में से एक है..
आपकी रचनात्मकता बनी रहे...
सहज रूप से अद्भुत !
एक तिलिस्मी अंधेरे से गुज़रकर एक तिलिस्मी छांह के छोर पर खड़ा बुदबुदा रहा हूं, शायद 'ज़रा ठहरकर?' या 'आह!' जैसा कुछ..
अजब असर की कविता है..
मायामृग संधान किये हैं,
हमने भी व्यवधान जिये हैं।
बहुत ही प्रभावशील रचना।
बेजोड़.. बेजोड़ - उमर चढ़े चढ़ाई/ चिढ़ाइ समझ आती है बाकी सब माया मिर्गी बहाने हैं. रात के करीब ऐसा ही होता/ होना है - संभावनाओं से सम का निकल जाना- है न ? :-)
मुनि की बात हो ही चुकी है ...:-)
[पु. -पहली बार में लगा थोड़ी क्रुएल है तो "सबसे बड़ा अफ़सोस" एक बार फिर पढ़ी, - इतनी रात गए उठा के] -सस्नेह
कविता के बारे में यहां इतनी अच्छी-अच्छी बातें पढ़कर इतना अच्छा लग रहा है। अभी-अभी यहां, मेरे ठीक पीछे लोग कह रहे थे कि हिंदी में लोग कवियों को दौड़ा-दौड़ा कर सिर्फ इसलिए नहीं मार रहे हैं क्योंकि वे कविता पढ़ते नहीं।
कविता का पढ़ना एक यात्रा से गुजरना था। अच्छा लगा। बाकी क्या कहूं। चंदू भाई, आप लिखते रहें। मस्त रहें।
आदमी के भीतर की अधूरी राम (माया) लीला।
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