Monday, March 14, 2011

ग्यारह सौ गज नीचे

कोयले की खान में गहरे उतरो तो
एक अलग सी तनहाई
अपने भीतर उतरती देखते हो
सिर पर चढ़ी टोपलाइट
रोशनी का एक लंबोतरा वृत्त
तुम्हारे आगे फेंकती है
बस उतनी ही तुम्हारी दुनिया होती है

लोग साथ होते हैं, पर नहीं होते
दो-एक रोशनियां अपने इर्दगिर्द देखकर
तुम सोचते हो
कि तुम अकेले नहीं हो
लेकिन असल में यहां कोई
किसी के साथ नहीं है
सभी जानते हैं कि यहां सभी अकेले हैं
और इस बात का कोई दार्शनिक अर्थ नहीं है

कोयले की खान में जाते हुए
सिर्फ पीछे छोड़कर
तुम्हारे दाएं-बाएं ऊपर-नीचे
और आगे भी सिर्फ कोयला है
उसी की दीवारें उसी की छत उसी का फर्श
और जिस जगह पहुंचकर खान बंद हो रही है
उसे ढहने से बचाने के लिए
सैकड़ों बल्लियों पर टांगकर रखा गया है

बीच-बीच में जब दबाव बढ़ता है
तब बल्लियां गरम हुई भैंस की तरह कंहरती हैं
अपनी आधी उम्र खान में गुजार देने वाले भी
उनका चरचराना सुनकर
कई कदम पीछे खिसक जाते हैं
क्योंकि जमीन से ग्यारह सौ गज नीचे
घात लगाए मौत के लिए
न कोई प्रधानमंत्री है न कोई पल्लेदार

कोयले की खान में
धीरे-धीरे इंसान और कोयले का
फर्क मिटता जाता है
तुम्हें पता भी नहीं चलता कि
खान में उतरते-उतरते तुम
अपने भीतर कैसे उतर गए-
और क्या हाल है कि
वहां भी सिर्फ कोयले के ढोंके दिखते हैं

कोई कहता है-
चलिए, टाइम हो गया
टाइम हो गया?
जी, सिर्फ आधे रास्ते की बैटरी बची है
उसकी मद्धिम अफसुर्दा रोशनी की तरफ
देखते हुए तुम खुद से बाहर आते हो,
पाते हो कि तुम्हारे और कोयले के सिवा
संसार में कहीं कुछ और भी है।

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बाहर आकर ही पता चलता है कि दुनिया और भी है।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

हमारे एक मित्र हैं जो ISM धनबाद से शिक्षा पूरी कर अंडरग्रांउड माइन में इंजीनियर रहे. आपकी कविता पढ़ उनकी याद हो आई.

प्रतिभा सक्सेना said...

सोच कर ही दहशत होने लगती है ,जिन्हें इतना नीचे उतर कर काम करना होता है उन्हें कैसा लगता होगा !

पारुल "पुखराज" said...

बेहद अच्छी…यहां आस-पास कोयला ही कोयला है…इसलिये भी अधिक समझ आती है… ये कविता मुझे

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

कोयले की खान में
धीरे-धीरे इंसान और कोयले का
फर्क मिटता जाता है...

बहुत संदर.... अच्छी रचना..
सादर बधाई..