Friday, November 12, 2010

मौत के सामने

(कल से आगे)
गाड़ी में आगे मैं और ड्राइवर और पीछे अपनी पत्नी के साथ जगमोहन था। मुझे पता था कि जो व्यक्ति अपना हाथ तक उठाने से लाचार हो, वह अपनी पत्नी से बरजोरी करके चलती कार से बाहर नहीं कूद पाएगा। लेकिन मन में दुविधा पैदा हुई कि अस्पताल में ही कौन से सुषेन या धनवंतरि बैठे हैं। डॉक्टर जब अधिकतम हफ्ते भर की ही जिंदगी पास रह जाने की बात कर रहे हैं तो क्यों न मरीज की बात को उसकी आखिरी ख्वाहिश समझ कर मान लिया जाए। इस तरह हमने गाड़ी दाएं के बजाय बाएं मोड़ ली और टनकपुर की तरफ चल पड़े। चढ़ते नवंबर की भोर में टनकपुर की यात्रा बीस मिनट का एक अच्छा अनुभव थी लेकिन बाजार में पहुंचकर पता चला कि जहां जाना है, उस जगह के बारे में किसी को कुछ पता ही नहीं है।

जगह-जगह रुक कर लोगों से बंसीधर जोशी टायर वाले के बारे में पूछा गया। फिर उनकी पहचान पीलिया झाड़ने वाले के रूप में बताई गई तो लोगों ने आसपास रहने वाले बीस और पीलिया झाड़ने वालों के नाम-पते बता दिए। फिर एक संकरी गली में पहुंचकर जगमोहन ने कहा कि जिनके यहां जाना है, वे कुछ सुंघाते भी हैं तो एक सज्जन ने बताया कि वे रोडवेज में ड्राइवर रहे रमेश जोशी हैं और उनका ठिकाना दो-तीन किलोमीटर पीछे छूट गया। रमेश जोशी के घर पर एक ड्राइविंग स्कूल का बोर्ड लगा था और न सिर्फ उनकी, बल्कि उनकी पत्नी की बातों का प्रवाह भी ढलान से उतर रही रोडवेज की बस जैसा ही था।

उन्होंने कोई झाड़फूंक नहीं की लेकिन अपनी दवा को रामबाण जैसी अचूक बताते हुए जगमोहन को दस मिनट में उसकी दो चुटकियां सुंघा दीं। उनकी दवा काफी महंगी भी थी- सौ रुपये में एक चुटकी। लेकिन मरीज को अगर इस हाल में कुछ फायदा हो गया होता तो शायद यह सस्ती ही लगती। जोशी जी का कहना था कि इस दवा को लेने के बाद शरीर से पीलिया बाहर निकलेगा। आंख से, नाक से, पसीने से, मल से, मूत्र से, जिस भी रास्ते वह बाहर निकल सकता है, हर रास्ते से बाहर निकलेगा। आजमाइश के लिए जरा सी मैंने भी सूंघी तो दो-तीन छींकें आईं और नाक जरा पनियाई हुई सी लगी। जगमोहन को कुछ भी नहीं लगा, लेकिन बाद में लगेगा, ऐसा सोच कर हम लोगों ने सूंघने और पीने की दो और खुराक बंधवा ली।

थोड़ा आगे चलकर जगमोहन ने कहा कि उसे लैट्रिन हो गई। हम लोगों ने कहा, कोई नहीं, दो मिनट में पहुंच जाते हैं। घर पहुंचने के बाद सिलसिला ही शुरू हो गया। लंबे समय से पेट पर धीरे-धीरे बन रहे दबाव से मरीज को थोड़ी राहत सी हुई होगी। घर के लोगों को भी लगा कि उसकी आंखों और त्वचा का पीलापन कम हो रहा है। रमेश जोशी को गलत न समझा जाए, लिहाजा उनके लिए भी यह सफाई देना जरूरी है कि उन्होंने पीलिया का इलाज करने का दावा किया था, कैंसर का नहीं। उन्हें बताया गया कि मरीज को पीलिया अलग से नहीं बल्कि लिवर कैंसर की वजह से है तो उन्होंने कहा था, कैंसर के बारे में मैं कुछ नहीं जानता, लेकिन पीलिया बढ़ने से हार्ट वगैरह पर जो जोर पड़ता है, वह इस दवा से कम हो जाएगा।

लंबा सफर और लगातार दो रातों का रतजगा दिन में दस-ग्यारह बजे के करीब मुझे दबा ले गया। दो बजे के करीब पत्नी ने जगाया और कहा कि भाई को लगातार लैट्रिन हो रही है। मैंने कहा अस्पताल चलें तो उनका कहना था कि थोड़ी राहत हो जाए तो चलते हैं। हुआ कि खूब ग्लूकोज पिलाया जाए और इंतजार किया जाए। मरीज को नैपी जैसी बनाकर पहना दी गई और थोड़ी देर में दिन ढल गया। रात में जगमोहन की पत्नी ने कहा कि बार-बार इनकी सफाई करनी पड़ रही है इसलिए आज उनके करीब वही सो जाएंगी। पत्नी के ब्रेन में भी एक छोटा सा ट्यूमर डिटेक्ट हुआ है और उसकी दवा के असर में वे अक्सर अर्धचेतन जैसी ही रहती हैं, फिर भी लगा कि कह रही हैं तो रहने दिया जाए। यह अच्छा फैसला नहीं था क्योंकि रात में उन्हें नींद आ गई और जो क्षण जगमोहन के लिए सबसे ज्यादा संकट के रहे होंगे, उनमें उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था।

सुबह करीब पांच बजे इंदु दौड़ी हुई आईं कि देखो ददा को क्या हो गया। उसका मुंह खुला हुआ था, जिससे वह पानी से बाहर निकाली हुई किसी मछली की तरह घरघराहट के साथ सांस लेने की कोशिश कर रहा था। मुझे लगा कि यह अस्थमा का अटैक है। एंबुलेंस के लिए फोन किया गया, नेबुलाइजर दिया गया और खूब सिंकाई की गई लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। कुछ ही मिनटों में एक डॉक्टर के साथ एंबुलेंस आ गई। उन्होंने भी थोड़ा बहुत सपोर्ट दिया, फिर अस्पताल ले गए। वहां ऑक्सीजन और लाइफ सपोर्ट की बाकी व्यवस्था मौजूद थी। कुछ देर को लगा कि शरीर में ऑक्सीजन लेवल नॉर्मल हो रहा है, लेकिन चेहरा वैसा का वैसा ही रहा। आंखें खुली हुई थीं। मक्खी हटाने के लिए पंखा करने पर पुतलियां पंखे के पीछे-पीछे घूम रही थीं। पलकें जब-तब वैसे भी झपक रही थीं। लेकिन चेतना जितनी थी, उतनी ही रही, नॉर्मल स्थिति कभी नहीं लौटी।

यह इतवार की दोपहर थी और सोमवार को हम दोनों को अपनी-अपनी नौकरी पर वापस लौटना था। हम इंतजार कर रहे थे कि इधर या उधर, किसी भी तरफ मामला हो जाए, लेकिन नहीं हो रहा था। मम्मी ने कहा, तुम लोग अब जाओ। इसकी हालत पता नहीं कब तक ऐसी ही रहे। डॉक्टरों ने कहा, दो-तीन दिन तक लोग इसी हालत में रहते देखे गए हैं। मन मार कर हम चले। गाजियाबाद पहुंचकर मेरे पास फोन आया कि गुजर गए...इंदु को मत बताइएगा। घर पहुंचकर घंटी बजाते-बजाते सीधे इंदु के पास ही जयपुर से उनके चचेरे भाई का फोन आ गया और सारा एहतियात धरा रह गया।

जगमोहन कुछ समय तक मेरा दोस्त था। फिर कुछ समय दुश्मन रहा। फिर रिश्तेदार हो गया और फिर धीरे-धीरे वापस दोस्त जैसा लगने लगा था। मुझे लगता है कि कुछ मामलों में मेरी और उसकी मिट्टी एक जैसी थी। राजनीति दोनों के लिए सबसे ज्यादा दिलचस्पी की चीज थी, दोनों ने अपने-अपने ढंग से अलग-अलग धाराओं की होलटाइमरी की। एडवेंचर को लेकर दोनों की ललक एक जैसी रही और दोनों ने उसके नुकसान भी उठाए। मुझे अफसोस है कि मेरे खटीमा पहुंच जाने से उसकी मौत में शायद कुछ दिनों की जल्दबाजी हो गई, लेकिन थोड़ी सी राहत भी है कि अपने अंतिम दो-तीन दिन उसने लेटे-लेटे छत देखते हुए नहीं बल्कि अपने बीवी-बच्चों के साथ गुजारे। मौत के एक दिन पहले उसे टनकपुर ले जाने का फैसला गलत था, लेकिन जिंदगी की आखिरी हुड़क लगी तो अपनी मुश्किल आसान करने के लिए शायद मैं भी किसी बंसीधर मामा का बहाना बनाकर उसके जैसा ही कोई विचित्र नाटक करना चाहूंगा।

1 comment:

दीपा पाठक said...

चंदूजी/इंदु दी, दो दिन पहले ही पापा से फोन पर बातचीत में यह दुखद समाचार मिला। हिम्मत नहीं हो रही थी इंदुदी से बात कर पाने की, अभी तक नहीं जुटा पाई हूं। समझ नहीं आ रहा है कि क्या कहूं। हार्दिक संवेदनाएं। बात करूंगी इंदुदी से।