Thursday, November 11, 2010

मौत के सामने

कुछ घटनाक्रम ऐसे होते हैं जिनका कुछ सिर-पैर समझ में नहीं आता। ऐसे मौकों पर कुछ और नहीं, सिर्फ स्वदेश दीपक की कहानियां याद आती हैं। अतार्किक और भयावह लेकिन तार्किकता से कहीं ज्यादा बांध कर रखने वाली। पिछले तीन महीनों में मेरे पांच नजदीकी रिश्तेदारों की मौत हुई है। पहले एकमात्र चाचा, फिर एकमात्र बुआ, फिर चाचा के बड़े बेटे, फिर एकमात्र साले और अब एकमात्र चाची। इनमें तीन लोग बूढ़े थे और उनकी मौत बुढ़ापे से जुड़ी वजहों से हुई। एक मुझसे दस-बारह साल बड़े और एक हमउम्र थे और दोनों की मौत शराब से जुड़ी बीमारियों लिवोसिरोसिस और लिवर कैंसर से हुई।

इनमें सिर्फ अपने साले साहब जगमोहन सिंह राठौर की मृत्यु का साक्षी होने का मौका मुझे मिला। जुलाई के अंत में उन्हें कैंसर डिटेक्ट हुआ था। उनके घरेलू कस्बे खटीमा (नैनीताल के पास) में ही डॉक्टरों ने उनकी बिल्कुल सटीक डायग्नोसिस की थी। इसोफैगस का कैंसर, जो फैलकर पूरे लिवर को अपनी गिरफ्त में ले चुका था। लोग वहां से उन्हें लेकर दिल्ली आए। एम्स में खटीमा की डायग्नोसिस सही पाई गई। उन्हें बताया नहीं गया लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें सिर्फ एक से तीन महीने दिए। बारह-चौदह साल की दो बेटियां और सात साल का एक बेटा। इस महाविपत्ति का क्या करें, किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था।

मरीज को उसकी लाइलाज बीमारी के बारे में बताकर उसका हौसला तोड़ देना बुरी बात है, लेकिन उसकी नजर से इस बात को भला कब तक छिपाया जा सकता है। बगैर किसी इलाज के उसे घर ले जाना उसके सामने वैसे भी ज्यादातर चीजें साफ कर देता। डॉक्टर ने जगमोहन को सिर्फ इतना बताया था कि आपके लिवर में गांठें हो गई हैं। इनका कुछ किया नहीं जा सकता। बस, अपने से ठीक हो जाएं तो हो जाएं। हौसला बढ़ाने के लिए यहां मैंने जगमोहन की बात फोन पर एक योगाचार्य से कराई थी तो उन्होंने उसको अपनी इच्छाशक्ति के जरिए अपनी बीमारी से लड़ने और स्वस्थ दिनचर्या अपनाने की सलाह दी।

इच्छाशक्ति में मददगार होने के लिए एहतियातन एम्स वाली रिपोर्ट मैंने वहीं रहने दी और सोचा कि खटीमा वाली रिपोर्ट भी किसी तरह छिपा लूं ताकि कोई समझदार आदमी झटके में उसे सब बता न दे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। मेरी पत्नी इंदु उसे लिवा कर खटीमा गईं। वहां कोई छुटभैया डॉक्टर साहब आए, रिपोर्ट मंगवा कर देखी और कहा कि कैंसर ही है- चौथे स्टेज का। सुना तो दिमाग भन्ना गया। अब क्या करें। शब्दावली ब्लॉग वाले भाई अजित वडनेरकर से बात की। उनके मामा कमलकांत बुधकर हरिद्वार के मानिंद आदमी हैं। उन्होंने स्वामी रामदेव के यहां रिपोर्ट भिजवाई और वहीं वरिष्ठ पद पर काम कर रहे उनके बेटे ने जगमोहन के लिए यथासंभव सलाह और आयुर्वेदिक दवाओं की व्यवस्था की।

यह उपाय सिर्फ एक महीने काम कर पाया। उसके बाद मरीज के लिए प्राणायाम करना संभव नहीं रहा। धीरे-धीरे दवाओं में भी अरुचि होने लगी। पेट में कुछ भी जाना बंद हो गया और एक दिन इमर्जेंसी में उसे अस्पताल पहुंचाना पड़ा। इंदु इस बीच खटीमा आती-जाती रहीं और पिछले हफ्ते दीवाली से एक दिन पहले हम दोनों वहां पहुंचे। अस्पताल में लेटे जगमोहन की शक्ल बिल्कुल भी पहचान में नहीं आ रही थी। हल्दी जैसी पीली पतली खाल ओढ़े, उठने-बैठने हाथ हिलाने तक में लाचार हड्डियों का एक ढांचा। पूरी रात मैं और उसकी मम्मी (मेरी सास) उसे उठाते, बैठाते, एक चारपाई से उठाकर दूसरी चारपाई पर पहुंचाते और कुर्सियों पर उसका वजन इधर से उधर शिफ्ट करने की कवायद में जुटे रहे।

अगला दिन दीवाली का था। पिछले पंद्रह दिनों की तरह यह त्यौहार का दिन भी इसको इस तरह छत देखते हुए नहीं गुजारना चाहिए। यह सोचकर जैसे-तैसे एक व्हीलचेयर का जुगाड़ किया गया। सुबह की हवा और सूरज की रोशनी में उसे बाहर छत पर ले गए, फिर दोपहर को लाद-फांद कर घर उठा लाए। शाम को बच्चे बहुत खुश कि पापा पूजा पर बैठे हैं और वह भी ऐसे-ऐसे चलके-चलके गए। स्वभावतः पूजा-पाठ मुझे बहुत झेलाता है लेकिन इस दीवाली-पूजा के दृश्य मेरे जेहन पर हमेशा छपे रहेंगे। रात में हल्ला करते हुए सारे बच्चों और बड़ों के साथ जगमोहन ने कई सारे बेवकूफी भरे सीरियल देखे, लेकिन जैसे ही सब लोग सोने गए, फिर वही उठाने-बिठाने का सिलसिला शुरू हो गया। कई रातों बाद मम्मी सोने गई थीं, उन्हें उठाने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन लगातार सोचता रहा कि किसी तरह रात कट जाए तो सुबह ही इसे लेकर अस्पताल चला जाऊंगा।

ठीक चार बजे भोर में मैंने दरवाजा खटखटा कर इंदु को जगाया और उनसे अस्पताल का फोन नंबर लिया। जगमोहन को बहुत बेचैनी हो रही थी। उसे उठाकर मम्मी के कमरे में ले गए तो अचानक वहां उसने एक विचित्र नाटक शुरू कर दिया- सुबह पांच बजे ही मुझे टनकपुर पहुंचना है, वहां बंसीधर मामा, बंगाली तांत्रिक और एक और आदमी पूजा पर मेरा इंतजार कर रहे हैं- तीनों साथ में पूजा करेंगे और मेरा वहां रहना जरूरी है। मैंने पूछा- कौन बंसीधर मामा, तो जगमोहन की मम्मी के पास भी इसका कोई जवाब नहीं था। बहुत सोचने के बाद ध्यान आया कि मम्मी के गांव के रहने वाले कोई बंसीधर जोशी बीस किलोमीटर दूर पहाड़ की तरफ पड़ने वाले टनकपुर कस्बे में टायरों की दुकान करते हैं।

मैंने कहा, इनमें से किसी का भी नंबर हो तो बताओ, या फिर पता बताओ, मैं सबको लिवाकर अस्पताल आ रहा हूं। वहीं पूजा होगी लेकिन पहले अस्पताल चलो। उसका एक जवाब- तुम समझ नहीं रहे हो, कोई फोन नंबर नहीं है और पता भी मेरे पास नहीं है, लेकिन टनकपुर पहुंचने पर सब मालूम हो जाएगा। मैंने कहा, पंद्रह दिन से तुम अस्पताल में हो। इस बीच या तो उनमें से कोई आया होगा या किसी और ने तुम्हें बताया होगा। किसी भी परिचित, किसी भी कॉमन लिंक का फोन या पता हो तो कोई परेशानी नहीं होगी। लेकिन उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं था और वह अड़ा हुआ था। जैसे-तैसे उठाकर उसे गाड़ी में लादा और सड़क की तरफ बढ़े तो बोला कि अस्पताल मुझे नहीं जाना... उस तरफ बढ़े तो कूद जाऊंगा...(जारी)

2 comments:

pankaj srivastava said...

बहुत बुरी खबर है चंदू भाई। मुझे जहां तक याद है, जगमोहन लखनऊ विश्वविद्यालय के काफी सक्रिय छात्रनेता थे, पीएसओ से आइसा बनने के दरम्यान। दिमाग में उनके नाम पर एक स्वस्थ और सुंदर नौजवान की छवि दर्ज है। उनका इस तरह असमय जाना बेहद दुखद है। श्रद्धांजलि।

चंद्रभूषण said...

हां पंकज, जिंदगी भी कैसे-कैसे मोड़ लेती है।