वामपंथी मुख्यधारा का नेतृत्व भारत में लंबे समय से सीपीएम ही करती आ रही है। लेकिन इस बार के चुनावी नतीजों से न सिर्फ उसके लिए बल्कि उसके नेतृत्व में चलने वाली सीपीआई, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक और कुछ छिटपुट अन्य वाम दलों के लिए भी एक मुश्किल दौर की शुरुआत हो गई मालूम पड़ती है। चुनाव बाद आम धारणा यह बनी थी कि संसदीय वामपंथ के लिए संकट केरल में अंदरूनी झगड़ों से पैदा हुआ है, जो दूर भी हो सकता है, जबकि प. बंगाल में संकट का स्वरूप व्यावहारिक से ज्यादा वैचारिक और आस्तित्विक किस्म का है और इसका फायदा ममता बनर्जी के नेतृत्व में चलने वाली दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी ताकतों को मिलने वाला है।
अभी यह धारणा तेजी से बदलने लगी है। लोगों को लगने लगा है कि पश्चिम बंगाल में संसदीय वामपंथ द्वारा खाली की जा रही जगह पर सिर्फ दक्षिणपंथी और अवसरवादी मध्यमार्गी शक्तियां ही काबिज नहीं होने जा रही हैं, बल्कि राज्य में दशकों पहले कुचल दी गई रेडिकल वाम ताकतें इसे किसी और ही तरह की चीज से भर सकती हैं, जिसका पहले किसी को अंदाजा भी नहीं था।
उड़ीसा और झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल के चारो आदिवासी बहुल जिलों पश्चिमी मिदनापुर, पूर्वी मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरुलिया में सीपीआई (माओवादी) ने चुनाव के ठीक बाद जोरदार हस्तक्षेप किया है। यहां यह खास तौर पर चिह्नित करना जरूरी है कि इस बार उसके संघर्ष का स्वरूप ठीक उसी तरह का नहीं है, जैसा आंध्र प्रदेश, बिहार और कुछ हद तक छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में भी इसे समझा जाता रहा है। माओवादियों की आम छवि बारूदी सुरंगों से पुलिस की गाड़ी उड़ा देने या किसी थाने पर ऐक्शन करके जनता को मार खाने के लिए छोड़ कर भाग जाने वाले संगठन की रही है। इसके विपरीत लालगढ़ और उसके इर्द-गिर्द उनकी गोलबंदी नक्सल आंदोलन के पुराने संघर्षों की याद दिलाने वाली है।
यहां पहुंच कर हमें कुछ पल ठहरना चाहिए। ऊपरी तौर पर 1967 से 1971 तक बंगाल में और 1969 से 1986-87 तक बिहार में चले नक्सली संघर्षों की याद दिलाने के बावजूद लालगढ़ की लड़ाई उसका दोहराव नहीं है। दोहराव तो क्या, उसका जारी रूप भी नहीं है। नक्सली आंदोलन भारत में रूसी निर्देशों से अलग क्रांति की एक नई रणनीति तलाशने की कोशिश के रूप में शुरू हुआ था। क्रांति की उसकी समझ भारत को 1949 के पहले के चीन से मिलता-जुलता अर्धसामंती-अर्धऔपनिवेशिक देश मानने पर आधारित थी, जहां से भूमिहीन मजदूरों, गरीब किसानों की फौज बनाने, इलाके मुक्त कराने, नव-जनवादी ताकतों का मोर्चा बनाने और गांवों से शहरों को घेरने आदि जैसी कार्यनीतियां निकलती थीं।
सीपीआई (माओवादी) का वैचारिक साहित्य पढ़ें तो लगता है कि दुनिया इन चार दशकों में कहां से कहां गई लेकिन इनकी सोच की सुई वहीं की वहीं अटकी पड़ी है। इन्हें अलकायदा में भी अपना दोस्त नजर आता है क्योंकि इनके मुताबिक यह संगठन अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कर रहा है। जमीन पर ये बेरहमी से वामपंथी कार्यकर्ताओं को मारते, निजी फायदे के लिए ठेकेदारों से वसूली करते और मध्यमार्गी पार्टियों के हाथों इस्तेमाल होते नजर आते रहे हैं, जिसका चरम बिंदु यह है कि अपने आदि गढ़ आंध्र प्रदेश को इन्होंने लगभग खाली ही कर दिया है। ये मंडल आंदोलन के दौर में यात्रियों से भरा रेल का डिब्बा जला देते हैं और बीएसपी के उभार के वक्त इनके ज्यादातर शीर्ष नेता मार्क्स, लेनिन और माओ का दामन छोड़ कर कांशीराम के साथ जाना ज्यादा बेहतर समझते हैं।
लेकिन इन सारी विकृतियों के बावजूद पिछले तीन-चार वर्षों में- मोटे तौर पर कहें तो पीपुल्स वार, पार्टी यूनिटी और एमसीसी के परस्पर विलय के जरिए सीपीआई (माओवादी) के गठन के बाद से ही- भारतीय वामपंथ की इस सबसे रेडिकल धारा का वैचारिक ढांचा पहले से काफी सुधरा है। बिहार और झारखंड में कई सारे पेशेवर लुटेरे और हत्यारे इसकी कतारों से बाहर निकाले गए हैं (हालांकि उनसे पूरी तरह मुक्त इसे आज भी नहीं माना जा सकता ) और खासकर छापामार युद्ध की संभावना लिए पठारी-जंगली संरचना वाले कई इलाकों में गरीब आदिवासी आबादी के बीच इसकी पैठ मजबूत हुई है।
खुद को भारत के रेडिकल वामपंथ का आधिकारिक प्रतिनिधि बताने वाली धारा सीपीआई एमएल (लिबरेशन) अपनी वैचारिक बहस एक तरफ सीपीएम से और दूसरी तरफ संसदीय संघर्ष का निषेध करने वाली धाराओं से मानती आई है ( जिसका एकमात्र प्रतिनिधि अब सीपीआई (माओवादी) को ही मान लेने में कोई हर्ज नहीं है)। देश के वाम आंदोलन से लगाव रखने वाले लोग करीब डेढ़ दशक तक लिबरेशन के मुखपत्रों में चलने वाली ऐसी ऊर्जस्वी बहसों से जरूर वाकिफ होंगे। इन बहसों की जेनुइनिटी इनमें कही गई बातों से कहीं ज्यादा लिबरेशन के जमीनी आंदोलनात्मक प्रयोगों से बनती थी, जिनमें संघर्ष के किसी भी रूप का निषेध किए बगैर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का क्रांतिकारी तेवर बनाए रखने का प्रयास किया जाता था।
ये बातें भूतकाल में कहने को लेकर कोई विशेष निजी आग्रह नहीं है, लेकिन इस हकीकत का क्या करें कि पिछले कई सालों से सीपीआई एमएल (लिबरेशन) को लेकर सारी बातें उसकी चुनावी सफलताओं और विफलताओं के ही इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। पार्टी के पिछले अधिवेशन में केंद्रीय बहस संशोधनवाद के खिलाफ चलाई गई थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश के कुछ बड़े नेता पार्टी छोड़ कर चले गए। इन नेताओं का आग्रह एक जेनुइन वाम-लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में अपनी धारा की राष्ट्रीय उपस्थिति चिह्नित करने के लिए करीबी सोच वाली ताकतों का देशव्यापी मोर्चा बनाने पर था। अगर इस आग्रह को संशोधनवाद मान लिया जाए तो भी इसको परास्त करने के बाद पार्टी का जो रेडिकलाइजेशन होना चाहिए था, उस तरह की कोई खबर अभी तक सुनने में नहीं आई है।
देश का यथार्थ आज चमक-दमक और बदहाली के बीच बुरी तरह विभाजित है। इतना बंटा हुआ कि हकीकत के एक छोर की आवाज भी दूसरे छोर तक नहीं पहुंच पाती। ऐसे में कोई जरूरी नहीं कि पूरे देश पर लागू हो सकने वाली क्रांति की कोई एक ही रणनीति जब तक न खोज ली जाए तब तक देश भर की रेडिकल वाम ताकतें एक-दूसरे से संवादहीनता बनाए रखें। क्या लालगढ़ की लड़ाई उनके बीच आपस में ऐसी किसी बातचीत की गुंजाइश पैदा कर सकती है........ताकि देश में जारी फर्जी विमर्शों का पैराडाइम बदला जा सके और उसमें लोगों के दुख-तकलीफ के लिए कोई जगह बनाई जा सके।
5 comments:
संतुलित आलेख। जब जनतंत्र दिखावटी न्याय तक नहीं दे पा रहा है तो यह तो होना ही है।
इस आलेख का मंत्व्य क्या है? क्रांति के नाम पर मार्क्स सम्प्रदाय की सता या आम आदमी की बदहाली दूर करना? कम्युनिज्म के १०० वर्षों के इतिहास में कितनी खूँरेजी हो चुकी है? आखिर यह कब समझेगें कि इस दर्शन में अन्तर्निहित विरोधाभास हैं? पूंजी पर नजर गड़ाये रखते हुए गरीब, मजदूर, किसान की बात करना ही बेमानी है।
आम जनता इतनी वैचारिक चाशनी की न तो अभ्यस्त है और न ही उसका मार्क्स परिवार के दर्जनों झण्ड़ों से कुछ लेना-देना है। उसका तो सरोकार इतना है कि जीवन कैसे सरल हो और सामान्य मानुषी तरीकों से वे कैसे जी पायें। मार्क्स सम्प्रदाय की जबानी लपालपी से पिछले ३०-३५ सालों में देश और जनता का कोई भला नहीं हुआ है। बल्कि उन्हें आम जीवनधार से काट कर अपनें हथियार के रूप में इस्तेमाल कर उनकी जिन्दगी को नरक बना दिया गया है
सच बात तो यह है कि साम्यवादी जब तक अपनीं जड़ें इस देश में यहाँ की जुबान, यहाँ के सरोकारों से नहीं जोड़ेगे तब तक कुछ नहीं होंने वाला। जिस विचार धारा के लोगों के पास मार्क्स,लेनिन,माओ फिड़ेल कास्ट्रों और चे गुअएरा के अलावा अपना कोई देशी आदर्श न हो, कोई देशी नेता न हो, उस पर देश की जनता कैसे विश्वास कर सकती है? इस्लाम के पैन इस्लामिजम के अलावा और वह भी दूसरे देशो को हजम करनें के उद्देश्य के, क्या कोई ऎसी विचारधारा स्थायी हो पायी है जो अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के नाम पर सफल हुई हो? कब तक मल्टीनेशनल विदेशी कम्पनी के एजेन्ट्स की तरह काम करते रहेंगे? आज माओवादियों पर प्रतिबन्ध लगानें के मसले पर टाल मटोल करनें से मुखौटा भी उतर गया है, और यह साफ हो गया है कि इन आतंकी गतिविधियों का असली मकसद क्या है।
Chandrabhushan ki chinta sahi hi hai lekin sumant ka gussa jane kya hai. desi adarsh jaise jumle purani bakwas hai. desi adarsh aur prateek ki baat karne walon ke hashr bhi dekhe ja chuke hain
किशोर कुमार ने पता नहीं गुलशन नन्दा और आनन्द बक्षी से पूछकर किस संदर्भ में सीढ़ियों से उतरते हुए गाया था, मैं सीढ़ियों पर चढ़ते हुए गाना चाहता हूं- दुनिया ओ दुनिया, तेरा जवाब क्यों नहीं?
दुनिया कहां से कहां पहुंच गई और आप अब भी सीपीआई एमएल के संशोधनवाद में अटके हैं।
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