एक सुबह दिल्ली आने के लिए कप्तानगंज से बस पकड़ते हुए दोनों एक साथ ही मिल गए। बस सेकंड भर का खुटका, और लगा कि अभी कल ही शाम बस्ता कंधे पर टांगे स्कूल से घर जाने के लिए अलग हुए हों। रमाकांत उपाध्याय और सूर्यकांत राय। माट्साब लोग इन्हें दो बैलों की जोड़ी कहा करते थे। अगल-बगल के गांवों के रहने वाले और क्लास में सबसे पहले सिगरेट का सुट्टा मारना सीखने वाले नवीं-दसवीं के मेरे क्लासमेट। हाफ पैंट से फुल पैंट में पहुंचने की उस उम्र में ये दोनों मित्र हमारी पूरी क्लास के लिए एक साथ भय और आकर्षण, दोनों का ही केंद्र बने रहते थे।
हाई स्कूल का रिजल्ट आने के बाद पता चला कि इन दोनों लोगों को अभी अपनी जड़ें और मजबूत करनी हैं, उसके बाद ही ये कहीं और जा पाएंगे। बाद में पता चला कि अगले साल भी उनकी बात नहीं बनी और तीसरे साल स्कूल बदल कर किसी सुविधाजनक सेंटर के सहारे ही वे पढ़ाई के अगले मुकाम की ओर कूच कर पाए। कप्तानगंज में इंटरमीडिएट साइंस की व्यवस्था नहीं थी लिहाजा मैंने तेरही इंटर कॉलेज की तरफ प्रस्थान किया। लेकिन कभी किसी क्रिकेट मैच में तो कभी यूं ही बाजार में टहलते हुए दोनों मित्रों से मुलाकात होती रही। इसी बीच पता नहीं कैसे इन्होंने मुझे गुरू कहना शुरू कर दिया।
मुझे इसकी वजह कभी समझ में नहीं आई क्योंकि सिगरेट का स्वाद बहुत बाद में ले पाने के बावजूद रमाकांत और सूर्यकांत को मैं उनकी हिम्मत और फाकामस्ती, सिनेमाबाजी के उनके शौक और मास्टरों को लेकर उनकी जन्मजात अवमानना के चलते बिल्कुल दिल से अपना गुरू मानता था। स्कूल के सबसे कड़क मास्टर को जो छात्र क्लास में ही उसकी औकात बताने लगे और दोनों हथेलियों पर गिन कर कुल बासठ डंडे खाने के बावजूद उसके सामने रोए-गिड़गिड़ाए नहीं, उसके सामने मेरे जैसे लोग क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा। बहरहाल, चाहे जिस भी वजह से, वे मुझे गुरू कहते रहे और मैंने कभी इस पर खुल कर एतराज भी नहीं जताया।
करीब एक घंटे के बस के सफर में और फिर किसी दुकान पर एक-दो चाय लड़ाते हुए मैंने हाई स्कूल के बाद गुजरी सूर्यकांत और रमाकांत की जिंदगी का हाल जानने की कोशिश की। उनकी कहानियों में गोगोल की डेड सोल्स और बाल्जाक की ओल्ड गोरियो जैसी रवानी थी। फौरी हाल यह कि रमाकांत ने अयोध्या में एक पुराने मंदिर पर कब्जा कर रखा है और सूर्यकांत आजमगढ़ की फौजदारी अदालत में नाम और दाम कमाने की तरफ बढ़ रहे हैं।
रमाकांत ने किसी तरह इंटर-बीए निपटाने के बाद एमए की पढ़ाई के लिए फैजाबाद स्थित साकेत विश्वविद्यालय का रुख किया। वहां मेरी ही तरह एक पुराने मंदिर की छोटी सी कोठरी में रह कर उन्होंने पढ़ाई की शुरुआत की, लेकिन दो-तीन संयोग उन्हें मुझसे बिल्कुल अलग रास्ते पर ले गए। पहला संयोग यह कि उनके मंदिर का महंथ काफी बूढ़ा था, दूसरा यह कि रमाकांत अपने इरादों में बिल्कुल साफ थे और बाहुबल के इस्तेमाल से उन्हें कोई परहेज नहीं था, और तीसरा यह कि जब वे साकेत विश्वविद्यालय में एमए फाइनल की तैयारी कर रहे थे तब मंदिर आंदोलन अपने चरम पर पहुंच रहा था।
आगे की कहानी रमाकांत के शब्दों में- साला बुड्ढा हर महीने किराए को लेकर बड़ी किचकिच करता था। इधर हम लोग मंदिर आंदोलन में सक्रिय हुए तो वह थोड़ा डरने लगा था और बार-बार कोठरी खाली करने की जिद करने लगा था। एक रात हम लोगों ने डंडा उठाया और घुसकर उसको लगे मारने- साले मुसलमान आएंगे मंदिर पर कब्जा करने तो इसको तुम्हीं बचाओगे। इधर पवन भइया (लोकल गुंडा और अयोध्या आंदोलन का दंगाई नेता) का हमको पूरा सपोर्ट था ही। ले गए हम लोग महंथवा को सरजू डका आए। तब से मंदिर पर रात में हमारा ही ताला रहता है। बुढ़वा शुरू में आता था, अब नहीं आता- अपने टाइम में ऊ भी त साला ऐसे ही मंदिरवा कब्जिआया था न।
इधर सूर्यकांत ने अपने करीअर के विकास में भारतीय न्यायपालिका की काफी पोल खोली। कैसे उनके सीनियर बाजार से आम खरिदवा कर जज साहब के यहां पहुंचवाते हैं, यह कह कर कि घर में पाल खुली है, जरा चख के देखिए। या फिर हर नए आए जज के यहां महीनों दूध का उठवना चलता है, यह कह कर कि भैंस ब्याई है, दूध इतना हो जा रहा है कि समझ में नहीं आता करें क्या।
इतने समय में जज साहब का नरम-गरम पता चल जाता है। क्या चाहते हैं, क्या नहीं चाहते। किस मामले में कहां तक जा सकते हैं और किसमें ज्यादा दबाव देना ठीक नहीं है। बाकी जिरह और दलील सब सिनेमा के लिए है- नीचे तो जैसी जिसकी सेटिंग, वैसी उसकी गेटिंग। अपने सीनियर के पीछे-पीछे सूर्यकांत भी अब इस कला में दक्ष हो चले हैं और अब धीरज के साथ सही मौके का इंतजार कर रहे हैं। किसी दिन उनके सीनियर अपनी कुर्सी के नीचे झांकेंगे तो वहां उन्हें अंतहीन सुरंग नजर आएगी, जो दरअसल उनके सारे कमाऊ मुकदमों और मुवक्किलों को लिए-दिए शहर के नामी वकील सूर्यकांत राय के दफ्तर पहुंच रही होगी। कौन जाने, यह अब तक हो भी चुका हो।
मेरे जिले के दो रंगबाज भाई उमाकांत यादव और रमाकांत यादव बारी-बारी से अगल-बगल के क्षेत्रों से एमपी बनते रहते हैं, लेकिन जब भी उनका जिक्र आता है, मुझे नवीं और दसवीं में अपने साथ पढ़े रमाकांत उपाध्याय और सूर्यकांत राय की जोड़ी याद आती है। दोनों बिल्कुल सही रास्ते पर जा रहे हैं और शायद कुछ साल बाद उनमें भी कोई एमएलए या एमपी बना हुआ दिखे।
1 comment:
गैटिंग इज़ बैटिंग एन्ड रॉलिंग इज़ बोलिंग!
रमाकान्त और सूर्यकान्त की कथा अच्छी है सर! आगे भी इन्हीं के दिन रहने वाले हैं.
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