हॉकी की दुर्दशा पर ध्यान खींचने के लिए चर्चित हुई फिल्म 'चक दे इंडिया' का टाइटिल सांग पिछले तीन-चार दिन क्रिकेट के लिए इतनी बुरी तरह घिसा गया कि सुनने वालों के कान पक गए। लेकिन जहां तक खुद हॉकी का सवाल है, तो 1928 के ओलंपिक में भारतीय टीम के प्रवेश के पूरे अस्सी साल बाद यह पहला मौका होगा जब वह ओलंपिक में हिस्सा नहीं ले रही होगी। चिली में आयोजित क्वालिफाइंग टूर्नामेंट में ब्रिटेन से 2-0 से हारकर भारत ने ओलंपिक में खेलने का मौका गंवा दिया है।
शाहरुख खान जैसे छवियों के सौदागरों से यह पूछना बेकार है कि अपनी डूबती इमेज को हॉकी के सहारे संभालकर करोड़ों रुपये पीट लेने के बाद वे सैकड़ों करोड़ खर्च करके क्रिकेट को गोद लेने क्यों चले गए। और तो और, फिल्म रिलीज के बाद दिए गए कई इंटरव्यूज में उन्होंने अपने कॉलेज के जमाने की हॉकीगिरी को खूब भुनाया। इसके लिए जब-जब जरूरी हुआ तब घोर क्रिकेट-विरोधी दिखने का नाटक भी किया। लेकिन धंधे वालों के लिए यह सब करना धंधे का हिस्सा है।
पूछना हो तो कोई सरकार, खेल मंत्रालय और देश के हॉकी ढांचे से पूछे कि केपीएस गिल को इस खेल की शवयात्रा निकालने का ठेका इतने समय से क्यों दे रखा गया है। इनकी ही मेहरबानी है कि टीम जब भी थोड़ी-बहुत खड़ी होनी शुरू होती है, किसी न किसी हरकत से उसका शीराजा बिखेर दिया जाता है। खिलाड़ियों की रत्ती भर भी इज्जत नहीं रह गई है। इसी फाइनल मैच में ब्रिटेन से खेलते हुए कहीं से लगा ही नहीं कि इस टीम के साथ राष्ट्रीय टीम होने का कोई जज्बा भी जुड़ा हुआ है।
और हॉकी ही क्यों, अथलेटिक्स में, तीरंदाजी में, तैराकी में और दूसरे तमाम खेलों से जुड़े ढांचों में अपने-अपने ढंग के केपीएस गिल भरे पड़े हैं। कहीं विजय कुमार मल्होत्रा हैं तो कहीं सुरेश कलमाड़ी हैं- सबका खाने-चबाने का अपना-अपना शास्त्र है।
पिद्दी-पिद्दी नायकों को चने की झाड़ पर चढ़ाने में जुटे हमारे मीडिया के बारे में कभी कुछ कहने का मन ही नहीं होता लेकिन हर ओलंपिक के बाद पदकों का नक्शा देखकर अजीब-अजीब खयाल मन में आते हैं। आखिर वजह क्या है कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाला यह देश किसी भी विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा में इस कदर सन्नाटा खींच जाता है, जैसे यहां लोग ही न रहते हों, जैसे यह कोई ठोस जगह न होकर हिंद महासागर का ही विस्तार मात्र हो।
क्रिकेट की आभासी दुनिया के बरक्स खेल-कूद की वास्तविक दुनिया में हॉकी की इस पराजय के साथ ही एक वृहदस्तरीय राष्ट्रीय अपमान की पूर्वपीठिका तैयार होनी शुरू हो गई है। कुछ महीनों बाद पेइचिंग में चल रही ओलंपिक प्रतियोगिताओं में हमारा पड़ोसी देश चीन पदकों से बोरा भर रहा होगा, जबकि हमारे कान एक बार भी स्टेडियम में अपनी राष्ट्रीय धुन सुनने को तरस रहे होंगे।
7 comments:
क्यों मन खराब कर रहे हो, भैया? तुम्हारा बेटा कैसा अनोखा क्रिकेटबाज है और उसकी क्रिकेटई देखकर कैसे बालकनी में खड़े-खड़े तुम्हारी आंख से लोर बहने लगता है, इसपर भावुक होके एक पोस्ट ठेल नहीं सकते थे?
ढेर अल-बल सूझ रहा है? उठाएं हॉकी?
चन्दू जी,आपकी चिन्ता जायज है,पर ये भी क्यौ नहीं सोच रहे कि पिछले एक दो महीने पहले तक भारतीय टिम का मनोबल काफ़ी मजबूत था,पर क्रिकेट में नोटों की बरसात देखकर हॉकी के खिलाड़ियों को शायद यही लगा होगा कि चक दे इंडीया का गाना "कुछ करिये....कुछ करिये " ही हम करते रहेंगे पर कुछ हो ना पायेगा...और मैच में जान लड़ाना छोड़ दिया,पर इन गिलों और कलमाड़ियों, खेल मंत्रालय..या सरकार से अब भी उम्मीद किया जा सकता है?आपने जो मुद्दे उठाए हैं वो बिलकुल सटीक हैं...मेरी सहानुभूति भारतीय हॉकी के खिलाड़ियों के साथ है।
GURU AISE HI LAGE RAHIYE.....
BHOR TO HOBE KAREGA....
अभी आप प्रमोद भाई पर हाकी नहीं उठा सकते....हम सभी बंबइया लोग उनके साथ हैं...
इस विषय पर लिखने के लिए धन्यवाद।
अच्छा लिखा है . आपसे सहमत हूं . बस 'उठाएं हॉकी' वाली बात को छोड़कर .
अब तो इतनी भारी हो उठी है कि जिन्हें उठानी है उनसे ही नहीं उठ रही है हॉकी.
कुछ करिए .... पर क्या ?
Post a Comment