Monday, January 7, 2008

आपने किसी को बेवजह रोते देखा है?

इससे ज्यादा एंबरासिंग सीन कोई हो नहीं सकता। एक वयस्क, बाल-बच्चेदार पुरुष को रोते हुए देखना। वह भी बिना किसी वजह के। कोई घटना नहीं, कोई बात नहीं, सिर्फ भीतर से रुलाई फूटती चली आ रही है। मेरे एक सहकर्मी के साथ आजकल ऐसा ही हो रहा है। डॉक्टर ने बताया, घनघोर डिप्रेशन है। फिजिकल लेवल पर चला गया है। महीने में ढाई-तीन हजार रुपया इलाज पर खर्च हो रहा है। घर में कमाने वाले अकेले और तनख्वाह कुल चौदह हजार रुपये। दुनिया में कौन-सी दवा ऐसी बनी है जो इस बीमारी का इलाज करेगी?

आमदनी का छठां हिस्सा अगर इलाज में चला जाए तो इस इलाज से ज्यादा बड़ी बीमारी भला और क्या हो सकती है? बीमारी मनोवैज्ञानिक है, लिहाजा कोई नॉन-केमिकल सपोर्टिव इलाज भी जरूरी है। लेकिन वह अगर बिना पैसे के संभव हो तो भी उसके लिए जरूरी इच्छाशक्ति कहां से आएगी? दसियों बार सुझा चुका, नियमित रूप से भ्रामरी प्राणायाम कीजिए। वे इसके बारे में जानते हैं, पहले करते भी थे, लेकिन अब कर ही नहीं पाते।

बहुत बचपन में मैंने अपने पहलवान पिता को रोते हुए देखा था। वह छवि आज भी दिमाग में ज्यों की त्यों छपी हुई है। नौकरी की कुत्तागिरी उनसे बर्दाश्त नहीं हो पाई थी। अपने बॉस की ही कुर्सी उठाकर उन्होंने उसकी कपाल क्रिया कर दी थी और 44 की उम्र में कुल आठवीं बार बेरोजगार होकर घर चले आए थे। यहां पहले मेरे ताऊ जी ने बड़े कायदे से उनकी मिजाजपुर्सी की, फिर रही-सही कसर मेरी माताजी ने निकाली।

कुछ महीने यह सब झेलने के बाद असहायता उनपर चढ़ दौड़ी, और जिसकी पिटाई से गांव के बड़े-बड़े बदमाश खौफ खाते थे, उसे एक सुबह मैंने अकेले बैठे अहक-अहक कर रोते देखा। उनके पूरे जीवनकाल में स्थितियां फिर कभी बहुत अच्छी नहीं हुईं। यूं कहें कि दिनोंदिन ये बिगड़ती ही चली गईं। लेकिन इसके समानांतर उनका अपना एक सपोर्ट सिस्टम भी जरूर बना होगा, क्योंकि उस एक घटना के बाद मैंने उन्हें कभी इस तरह हथियार डालते नहीं देखा।

मेरे ख्याल से पहलवानी और एक किस्म की धार्मिक आस्था ने पिताजी के लिए सपोर्ट सिस्टम की भूमिका निभाई थी। जिसे हम लोग आजकल दोस्ती कहते हैं, उस तरह की दोस्ती तो उनके साथ किसी की मैंने देखी नहीं, लेकिन जिले भर के एक से एक कनटुट्टे, अड़बंग किस्म के बिल्कुल अपढ़ पहलवानों के साथ उनकी घंटों-घंटों चलने वाली दंगल चर्चाएं मैंने सुनी हैं, उनका रस लिया है। खुद ज्योतिषी होने के बावजूद इस पेशे से जुड़े लोगों, पंडितों-पुजारियों से घुलते-मिलते उन्हें कभी नहीं देखा, लेकिन किसी खेत की मेंड़ पर टहल रहे अनजान-अजनबी आदमी के मुंह से रामचरित मानस की कोई चौपाई सुनकर आंखों में जल भरे, रुंधे गले से ओ-हो-हो-हो करते बहुत बार देखा है।

ऐसा कोई सपोर्ट सिस्टम न मेरे पास है, न मेरे मित्र-सहकर्मियों के पास। अपनी तीसरी नौकरी छूटने के दो-तीन महीने बाद एक दिन जब मुझे रुलाई फूटनी शुरू हुई तो अपने दो साल के बेटे की आंखों में ठीक वैसा ही 'शॉक ऐंड ऑ' वाला भाव मैंने देखा, जो अपने पिता को रोते देख आजतक मेरे मन पर छपा हुआ है। मैं नहीं जानता कि वह स्थिति अगर कुछ महीने और बनी रहती- कम तनख्वाह और कई साल पुराने ओहदे पर ही सही, लेकिन एक अदद नौकरी की व्यवस्था न हो जाती- तो उस असाध्य डिप्रेशन से मैं कैसे निपटता।

यह मेरी धूर्तता होगी, अगर कहूं कि मेरे भीतर और बाहर इससे निपटने का कोई सपोर्ट सिस्टम मेरे पास तब मौजूद था, या आज मौजूद है। ऐसा कुछ भी मेरे पास नहीं है- न पहलवानी, न धर्म, न दोस्ती, न साहित्य, न ही कुछ और।

मुझे लगता है कुछ रुखड़े मिजाज के, लेकिन भीतर से सहृदय, खुदाई खिदमतगार किस्म के लोगों के लिए अपने इर्द-गिर्द हमेशा एक स्पेस बनाकर रखना चाहिए। डिप्रेशन में, पतन और पराजय के क्षणों में ऐसे ही लोग मददगार होते हैं। चिकनी-चुपड़ी सहानुभूति अक्सर जहरीली साबित होती है- सामने भी, और पीठ पीछे तो और भी ज्यादा।

आपके मन के आसपास कुछ ऐसे लोग हमेशा होने चाहिए जो ज्यादा आकाश-पाताल की बातें न करें। आपको जमीन पर टिकाए रखें। अपनी बातों से नहीं, हरकतों से भरोसा दिलाते रहें कि इस धरती पर जैसे सारे जीव-जंतु इतनी विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रह लेते हैं, वैसे ही आप भी जी लेंगे। आपकी उलझनें चाहे जितनी भी विकट हों लेकिन विशाल पृथ्वी और अनंत समय में उनकी हैसियत कुछ भी नहीं है। विपत्तियों और दुखों के उमड़ते ज्वार से डरिए नहीं- सिर झुकाकर उसकी तरफ पीठ कर दीजिए तो शायद वह ऐसे गुजर जाए, जैसे कभी था ही नहीं।

अपने परेशान दोस्तों के साथ अक्सर मैंने इसी अक्खड़ तरीके से पेश आने की कोशिश की है- बन पड़ा तो एकाध बार थोड़ा-बहुत हाथ बंटा लेने की भी। अफसोस कि कुछ मामलों में यह कारगर साबित हुआ है तो कुछ में रिश्ता ही टूट जाने की नौबत आ गई है। किसी महानगर में अगर आप न्यूनतम 15 हजार के खर्चे में जी रहे हैं और आपकी तनख्वाह 14 हजार रुपये है, जिसमें से ढाई हजार रुपये हर महीने आपके इलाज पर खर्च हो जाते हैं तो आखिर वह कौन-सा सपोर्ट सिस्टम होगा, जो डिप्रेशन को परास्त करने में शर्तिया तौर पर आपकी मदद कर पाएगा?

9 comments:

Dr Parveen Chopra said...

Dear Chanderbhushan ji, yes support system is there....very much there. Please make 100% efforts in putting your dear friend on line ie just pursuade to practice daily pranyama and also he must meditate daily. Indeed it will be very very helpful. Regarding your dear father, yes, he had a strong support system...deeply grounded in religion.
दोस्त, इतनी इमानदारी से लिखने के लिए शाबाशी।
शुभकामनाएं --आप के लिए भी और विशेषकर अवसाद से घिरे आप के उस दोस्त के लिए...

Asha Joglekar said...

भ्रीमरी तथा ओम प्राणायाम से लाभ होगा तथा किसी हास्य क्लब को जॉइन करने स भी फायदा होगा ।
आप भी मित्र को ऐसे किसी क्लब मे ले जा सकते हैं जो किसी भी पार्क में आपको मिल जायेगा ।

Shastri JC Philip said...

"आपके मन के आसपास कुछ ऐसे लोग हमेशा होने चाहिए जो ज्यादा आकाश-पाताल की बातें न करें। आपको जमीन पर टिकाए रखें।"

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अत: उसे अपने चारों ओर सही तरीके के लोगों को लपेटे लेना चाहिये

azdak said...

क्‍या इलाज है? लाइलाज है.. नौकरी के टंटे और घरेलु जिम्‍मेदारियों की चिकचिक न हो तो रोनेवाले बड़े सुखी लोग हैं..

Unknown said...

छोटे थे तो मां कहती थी, कैथार्सिस होनी चाहिए, गुबार जमा के गर्द बनाए से अच्छा रो लिया जाए/ खरा खोटा सब कह लिया जाए, सो कहूँगा विवशता को धोना न धोने से बेहतर है| आप जैसे दोस्त साथ खड़े रहेंगे तो जैसे सदैव सुख नहीं रहता, उनका दुःख भी जाएगा | जब कहर गिरता है तो सोच को साथ ले जाता है, तर्क अशक्त होता है, मानसिक दबाव शरीर और मन दोनों पर हावी रहता है, समय से पहले जाता भी नहीं | इस पैर में भी बिवाईयां फटी है, पहले पिता (जिन्हें कभी लेटे नहीं देखा) की स्ट्रोक के बाद बिस्तर बंद विवश आँखें ( करीबन साढ़े छह साल पहले), अवसान - और गए साल की अपनी पारिवारिक परिस्थिति - दोस्त/ परिवार जिन्हें सालों साल नोयडा में ही नहीं मिले कवच की तरह आ कर संबल बनाये अपोलो में खड़े हुए - साथ के बारे में आप सही कहते हैं - उन्हें समय और चुप का साथ दें- आस्था साथ देगी - हम सब की प्रार्थनाएँ उनके साथ हैं - विश्वास है प्रार्थनाओं में बड़ी शक्ति है - rgds manish

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

चन्द्रभूषण जी,
बचपन से रोते-रोते मेरी आँख में मोतियाबिंदु हुआ या डॉक्टर के कहे अनुसार; कह नहीं सकता. डॉक्टर ने कहा कि अगर आँख ज्यादा तड़पन में रहे तो उससे भी यह सम्भव है. खैर, मेरी दोनों आंखों में मोतियाबिंदु पैंतीस की उमर में हुआ और जब बस का नंबर भी पहचानने में असुविधा होने लगी तो एक ट्रस्ट से एक आंख का ऑपरेशन कराने के जरिये माता-पिता के दिए हुए लेंस की हत्या करवाकर कोई लेंस बिठवा लिया. दूसरी आँख में अब भी मौजूद है मोतियाबिंदु और उससे मैं प्यार करता हूँ.

दुश्वारियाँ तो ऐसी कि जनसत्ता जैसे तथाकथित राष्ट्रीय अखबार में पाँच साल उप-सम्पादकी करने के बावजूद नौकरी छूटने पर चार साल तक मेरे पास वडा-पाव खाने तक को पैसे नहीं होते थे. इसकी वजह यह थी कि मैं नगरसेवक (कोर्पोरेटर) जैसे कम ओहदे वाले सख्स को भाव नहीं देता था सीएम और सांसदों की कौन कहे.

लेकिन मैं कभी डिप्रेशन में नहीं गया. शायद बचपन में ही बब्बा द्वारा तुलसीदास पढ़वाने की वजह से ऐसा हुआ हो क्योंकि बाद में थोडा मार्क्स पढ़ने के बाद मैंने सपोर्ट सिस्टम की अवधारणा ही दिमाग में तोड़ डाली थी. मैं बब्बा को खुशहाल बदहाली में देखता था और चकित रहता था कि किस तरह वह अपने बुढापे में सिर्फ़ एक बैल के मरने पर रोये थे.

ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रहा कि मुझे किसे कमबख्त की सहानुभूति चाहिए. लेकिन पता नहीं सपोर्ट सिस्टम की अवधारणा ही मुझे ग़लत लगती है. इसका कहीं यह मतलब तो नहीं कि मुझे ख़ुद एक सपोर्ट सिस्टम की जरूरत है?

जेपी नारायण said...

जब थके आदमी को ढोता हूं
सोचता हूं उदास होता हूं।
वक्त थोड़ा सा गुदगुदाता है
खूब हंसता हूं, खूब रोता हूं।

.....क्या कहा जा सकता है इस हाल पर। पढ़ना शुरू किया आपके नाम पर, पहुंच गया कहीं और। यह किसी एक की दास्तान नहीं, घिरे-गिरे पूरे वर्ग की हकीकत है।

चंद्रभूषण said...

मित्रों, मैं नहीं जानता कि ऐसा कब होगा, कैसे होगा, लेकिन ब्लॉग के इस स्पेस में दिल की गहरी तकलीफों की साझीदारी के लिए भी गुंजाइश होनी चाहिए। नए-नए रूप धरती जिंदगी की चुनौतियों के सामने कमजोरी और बहादुरी की पुरानी धारणाएं बेमानी होती जा रही हैं। किसी सार्वजनिक स्पेस में परस्पर साझीदारी से शायद धीरे-धीरे इनके कुछ नए अर्थ विकसित हों।

36solutions said...

त्रिलोचन : किवदन्ती पुरूष