Friday, December 21, 2007

कन्फ्यूजन किसकी विचारधारा है?

अभी थोड़ी देर पहले टीवी में नया-नया काम करने वाले एक मित्र अपना दुखड़ा रो रहे थे। काफी समय तक लेक्चरर की नौकरी के लिए जूझने के बाद उनकी सोच-समझ से परिचित एक हितैषी ने एक जगह सुझाई और कहा कि वहां न सिर्फ उन्हें नौकरी मिल जाएगी, बल्कि मन का काम करने का मजा भी मिलेगा क्योंकि जो सज्जन चैनल संभाल रहे हैं, वे उन्हीं की विचारधारा के हैं। नौकरी तो नौकरी है और मालिक या बॉस की विचारधारा चाहे जैसी भी हो, नौकर को तनखा के एवज में अपनी नौकरी निभाते रहना होता है। हमारे मित्र को भी इसमें कोई एतराज नहीं था, लेकिन दिमाग सोचने-समझने वाला था लिहाजा वे कैमरे के सामने की जाने वाली बकवास में मौजूद वैचारिक कलाबाजियों को लेकर दुखद आश्चर्य में डूबे हुए थे।

खुद को घोर वामपंथी कहने वाला, अपनी इसी पहचान को भुनाकर लगातार ऊंची से ऊंची पगार हासिल करने में जुटा एक भाग्यविधाता किस्म का आदमी हर बात को घोर दक्षिणपंथी टिल्ट देने में क्यों जुटा रहता है, यह उनके लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ था। उनका कहना था कि वह चीजों को ज्यों का त्यों क्यों नहीं रखता- धंधे में उससे वामपंथी होने की मांग भला कौन करेगा लेकिन बातों को तोड़-मरोड़कर उसे अधिक से अधिक वामविरोधी रूप में पेश करने का क्या औचित्य है? मजे की बात यह कि यह सब करने के बाद भी यह व्यक्ति हर जगह अपनी वामपंथी पहचान ही भुनाता है और उसे टोकना तो दूर, वामपंथी जन उसे अपने बीच पाकर धन्य होते रहते हैं।

इस उड़ानबाजी को समझना अपने मित्र की तरह मेरे लिए भी कठिन है, अलबत्ता मैं इसे इस रूप में रेशनलाइज करने की कोशिश जरूर करता हूं कि पूरा माहौल आज बुरी तरह पैसे वालों के पक्ष में झुका हुआ है और उनकी ठकुरसोहाती बतिया कर ही अब कोई मीडिया के धंधे में टिका रह सकता है। इसका एक जस्टीफिकेशन और है। समाचार माध्यम आज मनोरंजन उद्योग का हिस्सा बन चुके हैं और अगर विचारधाराओं को बुरी तरह कीचड़ में लथेड़कर उनकी लुगदी न बना दी जाए तो 'मनोरंजक' समाचारों के बीच वे कंकड़ की तरह चुभती हैं।

यह सही है कि ज्यादातर विचारधाराएं अपने वादे पर खरी नहीं साबित हुई हैं। यह भी सही है कि उनमें से ज्यादातर का इस्तेमाल कुछ चुनिंदा लोग तरह-तरह की मलाई चाभने में कर रहे हैं, लेकिन क्या संसार में कोई ऐसा समय भी था, जब सारी विचारधाराएं अपने वायदों पर बिल्कुल खरी उतरा करती थीं? अब से दो-तीन सौ साल पहले, जब धर्म ही संसार की एकमात्र विचारधारा हुआ करता था, तब क्या धर्म- चाहे वह किसी भी किस्म का क्यों न हो- अपने वायदों पर बिल्कुल खरा था? उन सारे ही समयों में धर्म के नाम पर मचाई चाभने वाले मौजूद थे तो अपने धर्म के आसरे मौत से जूझ जाने वाले, बुरी से बुरी स्थितियों में मस्त रहने वाले लोग भी थे। ऐसी कौन सी अनोखी बात आज हो गई है जो विचारधाराएं सिर्फ लानत भेजने लायक ही मानी जाने लगी हैं?

यह सिर्फ विचारधाराओं को तर्क की कसौटी पर कसने वाली बात ही नहीं है, जैसा तमाम मौकापरस्त और 'प्रोफेट ऑफ डूम' किस्म के लोग हमें बताने में जुटे हुए हैं। यह दरअसल खुद में एक विचारधारा है, जो नए समय में नए सिरे से धीरे-धीरे आकार ले रही है। इसे आप 'भोगी प्रत्यक्षवाद' (हेडोनिस्टिक प्रैग्मेटिज्म) या कोई और नाम दे सकते हैं । भारत में वात्स्यायन से लेकर बिहारी तक और पश्चिम में बच्चनेलिया के ग्रीक सिद्धांतकारों से लेकर अमेरिकी थिंकटैंक फुकुयामा तक इसके विभिन्न रूप इतिहास में अनेक बार देखे गए हैं। कोई हमला, कोई मंदी या कोई दूसरा बड़ा हादसा इस विचारधारा की मिट्टी ऐसी पलीद करता है कि दस-बीस साल से ज्यादा जिंदगी इसे कभी नसीब नहीं होती।

जो लोग भी विचार की दुनिया से कोई नाता महसूस करते हैं, मेरे ख्याल से उन्हें बार-बार इसकी पड़ताल करते रहना चाहिए कि कब वे विचारधाराओं के पिद्दीपने से हताश होकर उनके पुनर्मूल्यांकन की मांग कर रहे हैं, और कब तमाम विचारधाराओं को गूंथकर उनका लड्डू बना देने वाली एक ऐसी विचारधारा के प्रवक्ता की तरह बात कर रहे हैं, जिसका कोई सिर-पैर नहीं है और जो सिर्फ एक आत्मकेंद्रित 'सुखी-सुखी-सुखी' बुलबुले के भीतर जीने, मरने और सड़ जाने के लिए अभिशप्त है।

4 comments:

Unknown said...

( चूंकी लिखा बहस में है !!!) लड्डू इसलिए बना कि बेसन/गुड/चीनी/ घी तेल पहले प्राप्य था -[कालांतर में दो-तीन तरह के लड्डू मिल कर चौथा-पांचवां भी बनायेंगे|अभिशप्त हम यूं भी हैं जो भोग/जोग(जो भी कहें)की एक सतह पर जीते हैं (परिवार पालना है/जिजीविषा है ), संवेदना के दूसरे स्तर पर मन - मशक्क़त खेलते हैं/ मथते हैं ( विचारधारा है/ इतिहास है /स्वप्न है/ बुराई है/ अत्याचार-शोषण है), तीसरी परत में अपने-अपने समाज की (अपनी?) सोची सहमति पर जो जैसे बन सका करते /बोलते हैं(लक्ष्मणरेखाएं हैं अपनी खींची/रैशनालाईजे़शन है/गर्व है /शर्म है /डर है/लालच है )| जो सामाजिक तौर पर नहीं बोलते/बोल पाते वो कहीं और निकलता है-किसी और रूप में (गुस्सा/रक्तचाप/जूतमपैजार/कविता/ भजन/भोजन/पागलपन /खरीद/मकान /सामान..)इस विन्यास में किसी एक स्तर (मसलन विचारधारा) का न होना,या क्षीण होना,या खिचडी होना सन्दर्भ विशेष (निजी) है| सामायिक है| चलायमान भी है| इसमें स्तर का दोष नहीं| काफी व्यक्ति-थोड़ा परिस्थिति का ( मसलन मेरे विन्यास में संवेदना थोड़ी कठोर है,आपके में थोड़ी नरम)| एक कदम पीछे खींचते हुए - विचारधारा भी तो एक विन्यास ही है| जोड़ने का या बाँटने का | डार्विन की आँखों से दुनिया थोड़ी ज़्यादा स्पष्ट दिखती है लेकिन अभी निर्वाण का समय नहीं - पढ़ के बहुत सोचा - धन्यवाद

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

ठीक सवाल उठाया है. इसकी पड़ताल की ही जानी चाहिए. हैरत है कि अभी भारत के तथाकथित प्रधानमंत्री (तथाकथित इसलिए कि यह आदमी ग्राम प्रधान का चुनाव भी नहीं जीत सकता) ने कहा वाम पंथी आतंकवाद यानी नक्सल वाद को सबसे बड़ा खतरा बताया है और हमारी वामपंथी पार्टियों का समर्थन अभी भी उसे जारी है. इस बात पर कहीं choon-चपड़ तक न हुई. क्या वामपंथ - नाक्सालवाद और आतंकवाद में कोई फर्क नहीं है? इस मसले पर भी बात होनी चाहिए.

चंद्रभूषण said...

एक हफ्ते के लिए घर निकल रहा हूं। लौटकर मुलाकात होती है।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

lautkar ayenge to hamaaree jigyasaa samapt karenge kya? vahee, vigyaan darshan vaala lekh. aapse bahut kuchh seekhana chaata hoon. ek prashn aur hai. 'vaampanth aur ghar men poojapaath! kisee par doshaaropan naheen; lekin jaananaa chaahataa hoon ki karl maarks ne is baare men spasht taur par kyaa kahaa hai?