Monday, December 10, 2007

दर्शन का मार्क्सवाद

अगर आप पूर्णकालिक दार्शनिक नहीं हैं तो दर्शन आपके लिए अस्तित्वगत प्रश्न कभी विरले ही बनता है। डेढ़-दो वर्षों के एक संक्षिप्त अंतराल में काफी अर्सा पहले ऐसा मेरे साथ हुआ था। आशुतोष ने अपनी टिप्पणी में 'आत्मा' से जुड़ी जिस बौद्धिक जिज्ञासा का जिक्र किया, हो सकता है वैसा ही कुछ मेरे साथ भी रहा हो, लेकिन मेरे लिए इस जिज्ञासा का संदर्भ बौद्धिक से ज्यादा अस्तित्वगत था।

1983 की जनवरी में और फिर अप्रैल में मैं दो बड़े हादसों से गुजरा था। पहले ससुराल में चिरंतन उत्पीड़ित बहन की लंबी बीमारी के बाद मृत्यु और फिर मुझसे ग्यारह साल बड़े भाई की आत्महत्या ने मुझे इस लायक नहीं छोड़ा था कि मैं ढंग से कोई भी काम कर सकूं। पिताजी के लिए ये चोटें इतनी भयानक साबित हुई थीं कि नौकरी से नाउम्मीद होकर पिछले कुछ सालों से ज्योतिष के काम के जरिए जो थोड़ी-बहुत नकदी वे घर ला पाते थे, वह भी आनी बंद हो गई।

ये दोनों झटके मेरे बी.एससी. फाइनल ईयर के थे, और भाई की खुदकुशी तो ऐन इम्तहान के बीच हुई थी। नतीजा मेरा जैसे-तैसे प्रथम श्रेणी का ही रहा था, लेकिन किसी अच्छी युनिवर्सिटी में दाखिला ले सकूं, इसके लिए न पास में पैसे थे, न घर की हालत देखते हुए कहीं दूर जाने की हिम्मत हो पा रही थी। ऐसे में आपद्धर्म के रूप में आजमगढ़ में ही रहकर कुछ ट्यूशन पकड़कर या किसी कोचिंग में पढ़ाते हुए अपनी जीविका निकालना और साथ में 'कंपटीशन की तैयारी' के नाम पर कुछ पढ़ते-लिखते रहना मेरी मजबूरी थी।

जिन लोगों का जीवन मजबूरियों में कटता है वे परिस्थितियों का भरपूर दोहन करने की कला भी सीख लेते हैं। ब्राह्मण बहुल गांव में निरंतर चलती रहने वाली लफ्फाजियों और लंतरानियों को छोड़ दें तो दर्शन से मेरा दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। भौतिकी, गणित और रसायन की पारंपरिक बी.एससी. करते हुए एक आम छात्र इवोल्यूशन के जरिए जीवन के उद्भव और विकास के बारे में जितना जान पाता है, उतनी जानकारी मेरे पास भी थी। लेकिन किसी वजह से अगर आप एक बार जिंदगी और मौत की संधि तक पहुंच जाते हैं तो उसके बाद की आत्मिक छटपटाहट को शांत कर पाने में न तो दर्शन की रस्मी बहसें मददगार हो पाती हैं, न ही 'इवोल्यूशन' इसमें आपकी कोई सहायता कर पाता है।

दर्शन से जुड़ी पिछली पोस्ट में मैंने रसेल, क्लिफर्ड और एंगेल्स का जिक्र किया था। मेरी तत्कालीन जीवन स्थितियों में शायद इन दार्शनिकों के लिए कोई गुंजाइश न बन पाती। लेकिन मजबूरियों को महात्मा गांधी बना देने की कला का अनुसरण करते हुए मैंने तय किया कि आजमगढ़ में जितना भी समय मुझे गुजारना पड़े, वह इसका सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल करते हुए गुजारना चाहिए। कंपटीशन की तैयारी करनी है तो सबसे ऊंचे कंपटीशन की तैयारी की जाए और उन विषयों को लेकर की जाए, जिसमें अपनी सर्वाधिक रुचि हो सकती है।

इस दृष्टि से गणित पर तो कोई विवाद ही नहीं था, लेकिन दूसरे विषय के रूप में किसी स्कोरिंग सब्जेक्ट या सुपरिचित भौतिकी के बजाय दर्शन क्यों चुना, इसका कोई ठोस तर्क न तब था, न अब है। मुशर्रफ साहब से बहसों के दौरान इस विषय में कुछ दिलचस्पी पैदा हो गई थी। लेकिन सबसे बढ़कर यह अंधेरे में लगाई गई एक छलांग थी- और कुछ नहीं होगा तो कुछ गहरी बातें पढ़ने को मिल जाएंगी, सुन्न पड़े मन में कुछ चिनगारियां फूटती रहेंगी, थोड़ा मजा आ जाएगा टाइप।

तैयारी के नकदी पक्ष के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि इस मद में कुल डेढ़-दो सौ रुपये मैं खर्च कर पाया। आईएएस का फॉर्म भरने के बाद संबंधित विषयों का सिलेबस यूपीएससी की ओर से ही प्राप्त हो जाता है। इसके महीने भर बाद बनारस जाकर गणित और सामान्य ज्ञान पर प्रीलिम्स के मॉडल प्रश्नपत्रों के संकलन और अपनी रुचि के दायरे में आने वाली गणित की दो किताबें (डिफरेंशियल इक्वेशंस पर एक रूसी लेखक की और रियल एनालिसिस पर एक जर्मन लेखक की) ले आया।

दर्शन से साबका प्रीलिम्स में नहीं, सीधे मेन्स में पड़ना था, लिहाजा उसके लिए लाइब्रेरी की मदद लेने की सोची। इसके सिलेबस में मेटाफिजिक्स, भारतीय दर्शन और एकाध चीजें और थीं। मेहता लाइब्रेरी में दरयाफ्त करने पर मेटाफिजिक्स पर ही कुछ अच्छी किताबें मिल पाईं। इन किताबों में सबसे ज्यादा चीजें प्लेटो पर थीं, लेकिन मुझे जमे रसेल और क्लिफर्ड क्योंकि इन दोनों से मेरी वाबस्तगी गणित की दो शाखाओं सेट थ्योरी और इंटीग्रल कैलकुलस के सिलसिले में पहले से थी।

इलाहाबाद में करीब दो महीने चली प्रीलिम्स की रेताई के क्रम में शायद दर्शन को लेकर मेरा उद्वेग कुछ शांत पड़ गया, या शायद समय बीतने के साथ यह अंदाजा होने लगा कि यह सिर्फ अपने को खाने जैसी चीज है। इस शहर में चार साल के अपने प्रवास के दौरान एक अकेलखोर बौद्धिक से मेरा रूपांतरण एक पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता में हुआ। और चीजों के अलावा यहां मैंने दर्शन के नाम पर भी काफी कुछ पढ़ा लेकिन वह न सिर्फ खुद को दुहराती रहने वाली इकतरफा प्रक्रिया थी, बल्कि उसका उथलापन भी खुजली पैदा करने वाला था। जी हां, मैं कथित 'मार्क्सवादी दर्शन' की बात कर रहा हूं, जिसे स्टालिन और ब्रेज्नेव कालीन रूसी प्रोफेसरों ने लिख-लिखकर आलमारियां भर रखी हैं।

फ्रेडरिक एंगेल्स की 'डायलेक्टिक्स ऑफ नेचर' और कार्ल मार्क्स की 'जर्मन आइडियोलॉजी' की बात अलग है, जो मेरे ख्याल से दर्शन से कहीं ज्यादा प्रति-दर्शन (एंटी-फिलॉस्फी) की रचनाएं हैं। इनकी तुलना में हल्की, कहीं ज्यादा पार्टिजन नेचर की, लेकिन बीसवीं सदी के वाम दायरों में दार्शनिक बहस को पूरे तीखेपन के साथ जिंदा रखने वाली वाली एक और रचना व्लादिमीर इल्यीच लेनिन की 'मैटीरियलिज्म ऐंड इंपीरियोक्रिटिसिज्म' है, जिसमें वे अपनी पार्टी के दार्शनिक बोग्दानोव और प्रतिद्वंद्वी मेंशेविक धड़े में शामिल प्लेखानोव के बीच दर्शन पर चली बहस में कूदकर बोग्दानोव की ऐसी की तैसी करते हैं।

ऐसी गिनती की दो-चार किताबों को छोड़कर इस लाइन में कहीं कोई फिलॉस्फिकल क्वेस्ट मुझे नजर नहीं आई। हां, वाहियात सूचनाओं के बोझ से लादकर कार्यकर्ता मिजाज के बंधुआ पाठकों को थका मारने की इनकी क्षमता अद्वितीय है। यहां मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबों पर अमूर्त बहस में जाने का कोई मतलब नहीं है, अलबत्ता इतना जरूर कहना चाहूंगा कि आशुतोष और स्वप्नदर्शी इवोल्यूशन के जरिए पदार्थ से चेतना के उदय को लेकर जितने आश्वस्त हैं, उतना मैं नहीं हूं। यह दुनिया बहुत बड़ी है और देशकाल (टाइम-स्पेस) की जिस छोटी सी खिड़की में इवोल्यूशन के तर्क से पदार्थ का चेतना में रूपांतरण हम दर्ज कर रहे हैं, वह वाकई बहुत-बहुत-बहुत छोटी है।

2 comments:

अनिल रघुराज said...

पढ़ने के बहुत सारे संदर्भ और सूत्र मिले हैं इस पोस्ट को पढ़ने से। बाकी तो मैं भी दर्शन में शून्य हूं। लेकिन एक मंथन ज़रूर लगातार भीतर ही भीतर चलता रहता है।

स्वप्नदर्शी said...

http://swapandarshi.blogspot.com/2007/12/blog-post_11.html

ise bhii dekhe