Thursday, December 13, 2007

कउड़े की रातें

खुशकिस्मत थे वे दरवाजे, जिनके सामने कउड़ा जलता था। पूस चढ़ जाने के बाद शाम को जब बदरी घिर आती थी और ऊपर से पुरुआ हींकने लगता था तब अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक खेस, दुलाई या कथरी ओढ़े दांत बजाते बुजुर्ग हम बच्चों को ललकारते थे। मुंह क्या देख रहे हो, ले आओ बंसवार से पतेली बटोर के। बांस के नीचे लगी चौड़ी पत्तियां ही कउड़े की जान होती थीं। लेकिन आग टिकी रहे, इसके लिए कुछ सूखी टहनियों की जरूरत भी होती थी। बुजुर्ग से कम बुजुर्ग लोग, यानी असमय बूढ़े हो गए लोग इस काम के लिए लग्गी लेकर रात में ही टार्च बारकर पेड़ों की टोह लेने लगते थे।

अब कउड़ा खुली जगह पर तो जल नहीं सकता था कि नीचे से सेंक लेते रहें और ऊपर से ओस खाकर मरने की तैयारी करें। यह काम किसी पेड़ के नीचे ही हो सकता था। आम तौर पर सियाराम बाबा का दुआर इसके लिए सबसे उपयुक्त माना जाता था, जहां एक झंखाड़ इमली का पेड़ किसी विशाल छत्र की तना हुआ था। किसी वजह से सियाराम बाबा के किसी परिजन से तनातनी हो गई तो एक नया कउड़ा बिरेंदर के दुआर पर जलने लगा, जहां पेड़ तो पत्ते गिराए हुए नीम का ही था। लेकिन 'नीम के नीचे की हवा कितनी शुद्ध होती है- देबी भइया बैठे-बैठे नीचे से दो-चार फायर भी मार दें तो लोग सिर्फ नाक सिकोड़कर रह जाएंगे, किसी के मरने की नौबत नहीं आएगी।'

बुजुर्गों की इज्जत की जानी चाहिए। तो ले आओ भाई, बोरा ले आओ। लेकिन इज्जत तो भाई सबकी इज्जत ही होती है। तो ले आओ भाई जरा पुआल खींच लाओ दो गट्ठर। जिसका पुआल खींचा गया, वह मन ही मन गालियां दे रहा है लेकिन ऊपर से कह रहा है कि फिर वापस रख देना। लेकिन जब बांस के पतेले खत्म हो गए और नीम की टहनियां भी राख होने की तरफ बढ़ गईं और बीच में जो किस्सा किसी ने उठा रखा था वह अभी आधा भी पूरा नहीं हुआ है तो नीचे पुआल क्या अंडा देने के लिए रखे रहेंगे। थोड़े-थोड़े निकलने शुरू हुए और देखते-देखते खाक हो गए। ऊपर से तुर्रे की तरह किसी ने सदियों पुरानी कहावत दोहराई- पुआल भी साला क्या तापना- 'पुआरे क तापल उधारे क खाब।'

और कउड़ा ठंढा पड़ते ही ठंढ वह कचकचाकर लगनी शुरू होती कि मन होता वहीं कहीं किनारे होकर मेल्ह जाएं। रेडियो में आवाज आती- 'अभी तक आप सुन रहे थे सिने संगीत, और अब सुनिये चित्रपट से।' तबतक किसी को ध्यान आता- हस्साला अलुआ क्या हुआ सब। पता चलता कि जब सारे लोग किस्सा सुनने में मगन थे तब कउड़े में भुनने के लिए डाले गए आलू कोई ले उड़ा था।

3 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...
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विजयशंकर चतुर्वेदी said...

चन्द्रभूषण जी, आपने ग्रामीण जीवन का बहुत अच्छा चित्र खींचा है. चित्र भी ऐसा, जिसमें कल्पना का लेशमात्र भी सहारा नहीं लिया गया है. खेतिहर संस्कृति की ऐसी झांकी हमारे बचपन में गाँव-गाँव सजती थी, लेकिन बीते २०-२५ वर्ष यों गुजरे हैं जैसे पाषाण-काल से लौह-युग आ गया हो. आपके इस निबंध में आए देसज शब्द अंगुली पकड़कर भावना के मूल तक पहुँचा आते हैं.

सच कहूं तो आप हम सबके मन की बात कउडे में भुनने के लिए डाले गए आलू की ही तरह ले उड़े हैं.

Unknown said...

मज़ा आया
आपका कउड़ा हम लोगों का अलाव - अलाव का जलना-जलाना, आस पास बतियाना / चुगलियाना सर्दी के मौसम की सीमित पंचायतों का इस बहाने जमना ; छोटों का बडों की बातें / कमजोरियां देखना, सुनना, (शायद) समझना; (धीरे धीरे बढ़ना/ बड़े होना) - [ लकडियाँ ढूंढ लाने के काम के तराजू में दूसरी तरफ़ लोभ होता था आलू - शकरकंदी ; हरे चने ( बूट) की कड़कडा़न / फट्फटान का भी ]
आपका लिखना अधिकतर अच्छा - बहुत अच्छा लगा - खासकर तप कर इस्पात का बनना - तलवार का कलम में बदलना [ "कविताएँ" पढी और "कवितायें" भी पढी - "एँ" और "यें" का फर्क नापने का प्रयास किया - लगा कि "एँ" खबरिये की प्रतिक्रिया हैं और "यें" भुक्तभोगी की टीस (?) - ग़लत हो तो गुस्ताखी के लिए छिमा ] - सादर