'जनमत' का माहौल दाढ़ी के लिए जरखेज था। महेश्वर और रामजी राय जैसे पुराने दढ़ियलों के बाद संतलाल, प्रकाश चौधरी, संतोष चंदन और यहां तक कि इरफान ने भी कुछ दिन दाढ़ी रखने का असफल प्रयास किया। ऐसे माहौल में त्रिलोचन जी जैसे शाश्वत दढ़ियल का आगमन एक सुंदर परिघटना थी।
एक बार दाढ़ी पर अपना संक्षिप्त वक्तव्य जारी करते हुए त्रिलोचन बोले, 'कुछ लोग अपनी दाढ़ी-मूंछों का बहुत ख्याल रखते हैं। उनकी दाढ़ी पर आने वाला खर्चा शेव के खर्चे से कहीं ज्यादा होता है। लेकिन ये जो चीजें आप मेरे चेहरे पर उगी देख रहे हैं, इन्हें कैंची, उस्तरे या कंघी से कोई मतलब नहीं है। नहाकर एक बार हाथ फेर लेना ही इनकी कुल साज-संभार है।'
दाढ़ी-मूंछों की वही सहज व्यवस्था मैंने कल रात त्रिलोचन के मृत चेहरे पर देखी। हाल में अखबारों में छपे उनके चेहरे पर थोड़ी सूजन सी नजर आती थी लेकिन मौत के बाद वह बिल्कुल नदारद थी। थोड़ी मुरझाहट जरूर थी लेकिन चेहरा उनका अब भी ठीक वैसा ही था, जैसा पिछले चौदह वर्षों से मैं देखता आ रहा हूं। एक अदद जिंदगी छक कर जी लेने का जो सहज संतोष चिरंतन अभावों के बावजूद उनके व्यक्तित्व में हमेशा नजर आता था, वह सोते वक्त और भी प्रखर हो उठता था....मौत में शायद यह अपने चरम बिंदु पर पहुंच चुका था।
प्राण निकलने के कष्ट का उनके पूरे शरीर मे अकेला चिह्न सिर्फ निचले होठ के दाएं हिस्से में दिखता था, जिसमें नीचे की तरफ जरा सा बांकपन आ गया था। बाकी सारा कुछ वैसा ही था। आगे से पीछे की तरफ उड़े हुए भुए जैसे सफेद बाल, तीखी भौंहों के नीचे बंद पड़ी बड़ी-बड़ी आंखें, बिना झुर्रियों वाला सांचे ढला चेहरा, चौड़े कंधों और कसी हुई छाती वाली क्षत्रिय धजा। बिल्कुल सीधे लेटे हुए, जैसे सिर के पास किसी की आहट पाकर अभी जग पड़ेंगे और मुस्कुराते हुए तड़ से कोई चुस्त फिकरा जड़ देंगे।
नब्बे साल की उमर पूरी करने में त्रिलोचन मेरे जैसे कई हजार लोगों से मिले-जुले होंगे। दुनिया चाहे इस करवट से उस करवट हो जाए, इनमें से किसी के भी मन से उनकी याद आखिरी सांस तक नहीं जाने वाली। इसके अलावा उनकी रचनाएं हैं, जिन्हें उनके वक्त में भले ही ज्यादा न पढ़ा गया हो, लेकिन आने वाले वक्तों के गुनीजन उन्हें फिर-फिर पढ़ने की तमीज सीखेंगे।
इतनी शक्लों में जिंदा त्रिलोचन को पूरा-पूरा मारने में मौत के भी छक्के छूट जाएंगे। लेकिन नई-नई तकलीफों में जीने के नए-नए मजे ईजाद करने वाले त्रिलोचन का होना उनकी रचनाओं और उनकी स्मृतियों से बहुत बड़ा था। अफसोस, कि उससे साबका अब कभी नहीं पड़ेगा।
5 comments:
अदभुत खरी श्रद्धांजलि। शुक्रिया चंदू भाई।
बहुत अच्छा स्मृति चित्र !
दुनिया ओ दुनिया, तेरा जवाब नहीं..
आपका भी जवाब नहीं,श्रद्धांजलि का ये रूप अच्छा लगा, शुक्रिया साथी,जाने वाले को भला कौन रोक सका है पर जाने के बाद भी हमारे दिलो दिमाग में उनका वही स्थान बना रहे ये महत्वपूर्ण है!!
त्रिलोचन जी की बीमारी और इससे लड़ने का उनका माद्दा बीते कई सालों से साहित्यजन के लिए श्लाघा का विषय बना हुआ था. लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है, साहित्यकार नजदीक नहीं फटके. फटकते भी तो बाबा उन्हें पास ठहरने देते या नहीं, यह भी सोचने की बात है. नागार्जुन, शमशेर, केदार की चौकड़ी का चौथा भीष्म-खिलाड़ी भी बाद हो गया है. आपका लेख बड़ा ही आत्मीयता भरा है.
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