Saturday, November 24, 2007

घटाटोप तनहाई

बहुत रात हो चुकी थी। मीटिंग कुछ ज्यादा ही लंबी खिंच गई। आरा शहर में बिजली का हाल ऐसे ही है, सो जाड़ों में नौ बजते-बजते लोगों के दरवाजे बंद होने लगते हैं, साढ़े नौ बजते-बजते सड़कें सुनसान हो चुकी होती हैं। अजित गुप्ता और मैं बस स्टैंड से निकलते ही सोच में पड़ गए कि किसका दरवाजा खटखटाया जाए। अजित का घर इसी शहर में था लेकिन पता नहीं क्यों घर जाना उन्हें पसंद नहीं था। मेरी चिंता नींद से ज्यादा भूख को लेकर थी। बस आधा घंटे पहले भी आ गई होती तो स्टैंड पर लिट्टियां सेंकने वाले बैठे मिल गए होते।

कुछ देर सोच-विचार के बाद अजित गुप्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि घर चलने के अलावा कोई चारा नहीं है। घर लगभग खंडहर ही था। बाहर एक कोठरी थी, जिसका ताला अजित ने मालिक-मुख्तियार की तरह कमर की करधनी में बंधी चाभी निकालकर खोला। एक पतली चौकी पर पतला सा गद्दा और मोटा सा एक चद्दर रखा हुआ था। घर के मुख्य दरवाजे पर बहुत सांकलें पीटने और किवाड़ भड़भड़ाने के बाद भीतर से किसी के उठने और कुछ बुदबुदाने की आवाज आई।

भीतर से सिटकिनी खुली और अजितबाबू तशरीफ ले गए। थोड़ी देर बाद वे दो-तीन रोटियां और एक छोटे भगोने में आलू टमाटर की बची-खुची सब्जी लिए नमूदार हुए, जिसे दोनों लोगों ने खाया और ढेर सारा पानी पीकर सोने के इंतजाम में जुटे। चौकी दो लोगों के सोने लायक नहीं थी, सो हुआ कि अजित जी घर में सो जाएंगे। उनके जाने के थोड़ी देर बाद कुंडी बजी और एक बूढ़ी खरखराती आवाज ने कहा- ए बाऊ, बर्तनवां उठा द। भगोना और गिलास देते हुए मैंने 'प्रणाम चाची' कहा तो भीतर से आशीर्वाद आना दूर, किसी पर्देदार महिला ने मेरे हाथ से बर्तन इतने झटके से खींच लिए, जैसे उसके साथ मैंने कोई बदतमीजी की हो। दरवाजा भी इतने जोर से बंद हुआ कि मुझे लगा, इस घर में मेरा बिल्कुल ही स्वागत नहीं है।

थोड़ी सी बेहयाई और जिद के बिना होलटाइमरी हो ही नहीं सकती, सो मैंने सोचा कि कल मैं चाची से बात जरूर करूंगा, भले ही वे मुझे बीच में ही धक्के मारकर भगा दें। आखिर अजित गुप्ता उनके बेटे हैं, जो खुद एक पुराने होलटाइमर हैं। चाची हमारे कामकाज के बारे में कुछ तो जानती ही होंगी। अगले दिन मैंने अजित जी को अपनी इच्छा बताई, लेकिन उन्होंने कहा कि जल्दी निकलना है, बाद में फिर कभी बात कर लीजिएगा।

यह मौका महीनों बाद आया। दोपहर के वक्त अजित जी मुझे सीधे घर के भीतर ही लिवाते चले गए। काफी बड़ा, लेकिन ढहता हुआ घर था। अजित बाबू के पिता अमीर आदमी थे और लंबा-चौड़ा मकान उन्होंने बनवा रखा था। लेकिन उनकी मृत्यु काफी साल पहले हो चुकी थी और मरने से पहले ही उनका मन इस घर से हटकर कहीं और जुड़ गया था। कुल मिलाकर उनकी कोई अच्छी, सम्मानजनक याद इस घर की टूटती-बिखरती दीवारों के बीच नहीं बची हुई थी।

बहुत मैली, सफेद सूती साड़ी पहने लगातार कुछ बुदबुदाती हुई वे लगभग वैसी ही साड़ी के पर्दे वाले बिना दरवाजे के एक कमरे से बाहर झांक रही थीं। उनके जितना तनहा इन्सान मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा- न इससे पहले, न इसके बाद। उनके शरीर पर सफेद दाग थे, जो अब दाग न रहकर पूरी त्वचा का ही रंग बन चुके थे। शायद इन दागों की वजह से ही पति ने उनका तिरस्कार किया था और जीवन असमय ही खुद उसका भी तिरस्कार कर चुका था।

वे चौबीसो घंटे घर में अकेली रहती थीं। उनसे बातें सिर्फ झड़े पलस्तर वाले घर की नंगी ईंटें या शायद कभी-कभी छत की मुंडेर पर आ बैठने वाली चिड़ियां ही करती थीं। वे हमेशा कुछ न कुछ बोलती रहती थीं और बीच-बीच में न जाने क्या सोचकर हंस भी लेती थीं। कभी न भूलने वाली, खुद को ही संबोधित, रुलाई जैसी उनकी हंसी। आखिरी उम्मीद, उनकी जिंदगी की आखिरी डोर अपने छोटे बेटे अजित कुमार गुप्ता के साथ बंधी थी- जो कुछ ही महीने पहले बाइस महीने की जेल काटकर बाहर आए थे। बड़े बेटे का अपना अलग परिवार था। पार्टिशन से अलग किया गया घर का एक हिस्सा- निकासी के दरवाजे समेत- उसके कब्जे में था।

मैंने अजित से पूछा कि इनका यह हाल कबसे है? उन्होंने बताया कि 'थोड़ा-बहुत बुदबुदाती तो पहले भी थी लेकिन मेरे जेल जाने के बाद से इसकी हालत काफी बिगड़ गई।'

मैंने अजित से कहना चाहा कि कम से कम जब आरा शहर में हों तब तो उन्हें अपने घर में रहना ही चाहिए। लेकिन इतना कहने की हिम्मत भी मेरी नहीं हुई। उनके पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता बनने की सकारात्मक वजह जो थी सो थी, लेकिन उतनी ही ताकतवर इसकी एक नकारात्मक वजह भी थी। वह यह कि इतनी हताशा भरे घर में वे रहते तो मर जाते या पागल हो जाते। घर से दूर रहकर ही वे शायद खुद को बचाए हुए थे।

मेरे आरा में रहते चाची के घर में उम्मीद की एक किरण अजित बाबू के विवाह के रूप में फूटी। सीवान की रहने वाली एक दलित कार्यकर्ता एक दिन बहू बनकर उनकी देहरी में घुसीं। जिंदगी का नरम-गरम उन्होंने काफी देख रखा था लिहाजा कम से कम शुरू के कुछ महीनों में चाची की बीमारी से या घर की विपन्नता से कोई विशेष असुविधा उन्हें होती नहीं मालूम पड़ी। अलबत्ता विवाह के थोड़े समय बाद ही पति-पत्नी में कुछ मनमुटाव दिखे और धीरे-धीरे दोनों की ही पार्टी से दूरी बनने लगी। शायद नया परिवार बनते ही गरीबी की दिमागी शक्ल नियति से बदलकर मजबूरी की हो गई थी, जिसके लिए वे सहज ही पार्टी को जवाबदेह समझने लगे थे।

बहरहाल, वह एक अलग किस्सा है। पंद्रह साल बाद उस घर की याद मेरे जेहन में सिर्फ चाची के विकट अकेलेपन के साथ जुड़ी है। प्रमोद भाई के यहां आजकल जिस पोस्टमॉडर्निज्म का चर्वण चल रहा है, उसकी नींव डालने वाले मिशेल फुको ने आधुनिकता के अतार्किक पहलुओं की धज्जियां उड़ाते हुए सुनबहरी जैसी बीमारियों का हवाला दिया है। इनके बारे में सभी जानते हैं कि ये छूत की बीमारियां नहीं हैं, फिर भी बिना दिल पर कोई बोझ लिए वे इनसे ग्रस्त लोगों के करीब नहीं जाते और उन्हें तनहाई में मरने के लिए छोड़ देते हैं। नहीं जानता कि पोस्टमॉडर्निज्म क्या है, लेकिन चाची को याद करके फुको के प्रति मेरे मन में तार्किक श्रद्धा उमड़ती है।

6 comments:

अभय तिवारी said...

बहुत शानदार लिखा है चन्दू भाई..

Priyankar said...

यह दुनिया जिन वजहों से बची हुई है उनमें सहानुभूति भी एक महत्वपूर्ण वजह है . आपकी निर्लिप्त-तटस्थ दिखने वाली शैली में भी उस सहानुभूति -- आत्मीयता -- की अन्तर्धारा चुपचाप बहती रहती है .

बेहद मानवीय और आत्मीय लेखन .

दीपा पाठक said...

बहुत अच्छा लिखा है लेकिन पढ कर मन उदास सा हो गया। अकेलापन वैसे भी अधिकांश बूढों की नियति बन जाता है लेकिन समाज से पूरी तरह कट जाना तो तिल-तिल कर मरने की तरह है। मार्मिक वर्णन।

स्वप्नदर्शी said...

mei jo baat kahanaa chah rahii thii vo priyankarji ne kah dii.

मनीषा पांडे said...

सुंदर। मैंने अपने घर-परिवार में गांवों में ऐसी कई औरतें देखी हैं, बेतरह अकेली। उ.प्र. में पंडित-ठाकुरों के परिवारों में आज भी औरतों की स्थिति बहुत बुरी है। ननिहाल में नानी की एक जेठानी थीं। वो बाल विधवा थीं। उनके पति की मृत्‍यु तब हुई, जब उनका गौना भी नहीं आया था। वो विधवा ही ससुराल आईं, और पूरी जिंदगी सफेद कपड़ों में, बिना गहनों-सिंदूर के रहीं। उनकी आंखों में मैंने वैसा ही अकेलापन देखा था। वो हमेशा चिल्‍लाती और बड़बड़ाती रहती थीं। उनकी जिंदगी से ज्‍यादा जानने लायक है, परिवार के अन्‍य उन लोगों के उनके बारे में विचार, जो मुंबई में पले-बढ़े थे। उस बेहद दुखद प्रकरण पर कलम फिर कभी।

DHARAM PRAKASH JAIN said...

मैने पहली बार आपका ब्लोग देखा है। घटाटोप तन्हाई निश्यय ही उत्कृष्ट रचना है। मैने भी कुछ दिन पहले एक ब्लोग
http://dharamprakashjain.blogshot.com
बनाया है। कृपया देखें।