मित्रों, हफ्ते भर बाद मिलना हो रहा है। पिछले शनिवार की रात हमारे अखबार के दफ्तर में आग लग गई। जिस फ्लोर पर हम लोग काम करते थे, पूरा फ्लोर ही जल गया। इतवार को सुबह खबर मिली। दस बजे के आसपास भागे-भागे वहां पहुंचे तो भयानक दृश्य देखने को मिला। पिघले हुए कंप्यूटर, बहे हुए प्रिंटर, भुरभुरा कांच, राख हुए पड़े टेबल कुर्सियां। पिछली शाम चमचम करता विशाल फ्लोर बिल्कुल कोयले की खदान जैसा काला। अगले तीन-चार महीने इसके ढर्रे पर आने के कोई आसार नहीं हैं। अभी हम लोग बाहर खाली पड़ी एक इमारत से अखबार निकाल रहे हैं। ऐसे में नौकरी हो पाना ही पहाड़ है, ब्लाग कोई कैसे लिखे, क्या लिखे।
अलबत्ता कभी-कभी ब्लागवाणी पर नजर मारने पर कुछ-कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता रहा। रिजेक्ट माल पर साथी दिलीप मंडल का भाई अनिल रघुराज से चले विवाद से संदर्भित अपनी पोस्ट (संदर्भ- 'बाल विवाह' ) वापस लेने का फैसला सराहनीय है। दिलीप की यह पोस्ट अत्यंत तार्किक और दिल के करीब से लिखी हुई थी और इसमें उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की थी कि कोई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता किशोरावस्था में अर्जित अपनी प्रतिबद्धता पर अफसोस करके अपने अस्तित्व के एक हिस्से का ही निषेध करता है। लेकिन दुर्भाग्यवश यह पोस्ट एक कटु विवाद की श्रृंखला शुरू करने वाली बन गई, जिससे किसी भी वैचारिक प्रतिबद्धता का कोई भला नहीं होने वाला है।
दिलीप हम लोगों के दायरे में हमेशा अंडरस्टेटमेंट्स में अपनी बात कहने वाले लेकिन वैचारिक रूप से अत्यंत पोढ़े साथी माने जाते हैं। पोस्ट हटाने का फैसला बताता है कि उनके लिए विचार की सत्ता अहं की सत्ता से बड़ी है। काश, हम सभी के लिए यह साबित करना संभव हो पाता।
बहरहाल, भाई अनिल रघुराज की जीवनीपरक कहानी के बीच-बीच में उनके ब्लाग पर कूदकर मैंने भी कुछ बड़ी तीखी बातें कही थीं। दिलीप के इस कदम के बाद एक बार मेरा भी मन हुआ कि उन टिप्पणियों के लिए मैं अनिल भाई से निजी तौर पर माफी मांग लूं और उन्हें अपनी जगह से हटा देने के लिए गुजारिश करूं। लेकिन दुबारा उन टिप्पणियों को पढ़ने पर- गुस्से के अतिरेक में आए तीखेपन के सिवाय, जिसपर शब्दों में अफसोस जताना बेमानी है- उनमें ऐसा कुछ करने लायक नहीं लगा।
दरअसल यह किसी वैचारिक हठधर्मिता का नहीं, अपने निजी जीवन के बारे में दो नजरियों का सवाल है। अनिल जी का अपने अतीत और खास तौर पर एक संगठन के साथ अपने जुड़ाव के मूल्यांकन का एक तरीका है- जो कुछ मामलों में गहरी साझीदारी के बावजूद मुझे ठीक नहीं लगा। अपनी उस राय से हटने की कोई वजह मुझे अब भी समझ में नहीं आती। बस इतना ही। वाम विचारधारा से लगाव और निरंतर उसका आलोचनात्मक मूल्यांकन एक अलग मसला है और हम लोगों के बीच हुई पिछली कोई भी बात इससे संबंधित विमर्श के आड़े नहीं आनी चाहिए।
बतकही (आफ द रिकार्ड) में विवेक सत्यमित्रम ने वामपंथ के इर्दगिर्द एक अच्छी बहस शुरू की है। मुझे पूरा यकीन है कि वाम विचारधारा को लेकर कहीं भी इस तरह की बात उठ जाने पर डंडा-सोंटा लेकर दौड़ पड़ने वाले भाई लोग जल्द ही यहां भी ठीक वैसी ही अखाड़ेबाजी शुरू कर देंगे। मेरी राय में विवेक की बातों को एक न्यायसंगत बहस के प्रस्थान बिंदु की तरह लिया जाना चाहिए- कौन जाने दोनों पक्षों को इसमें एक-दूसरे से कुछ सीखने-समझने लायक मिल जाए।
चूहे मारने की विधि वाली किताब दिखाकर आप किसी चूहे को डरा नहीं सकते। इसकी संभावना बहुत काफी है कि मौका मिलते ही चूहा उस किताब को खा जाए या कुतरकर उसका सत्यानाश कर दे। वामपंथी बौद्धिकों को मैं अक्सर यह गलती करते देखता हूं। कोई किसी वाजिब सवाल पर बात कर रहा होता है तो वे मार्क्स-लेनिन और दीगर विचारकों की मोटी-मोटी किताबें दिखाकर उसे हड़काने लगते हैं। ये टोटके अब चलने वाले नहीं हैं। अगर आपमें दम है तो इक्कीसवीं सदी में नए सिरे से खुले हर सवाल का नया जवाब खोजकर दिखाइए। आपके जनविरोधी काम इसलिए नहीं माफ कर दिए जाएंगे कि अतीत में आप आंदोलनकारी रहे हैं या बड़ी लच्छेदार बातें करते हैं।
जल्द ही मैं वामपंथ से अपने जुड़ाव के निजी संदर्भों के बारे में कुछ लिखना चाहूंगा और उन सारे अंध बिंदुओं ( ब्लैक स्पाट्स) की पड़ताल करना भी, जो विभिन्न आग्रहों-दुराग्रहों के चलते अनदेखे रह गए या आधे-अधूरे जवाब हासिल करके जिन्हें सुलझा हुआ मान लिया गया।
4 comments:
आपकी यह पोस्ट आपकी परिपक्वता और संवेदनशीलता का परिचय कराती है। वामपंथ से अपने जुड़ाव की पड़ताल संबंधी आपके आगामी लेखों का इंतजार रहेगा।
उम्मीद है किसी व्यक्ति को इस आग से शारीरिक नुकसान न हुआ होगा!!
आपकी पोस्ट का इंतजार रहेगा!!
चंद्रशेखर की मां से संबंधित आपकी पोस्ट पर मिली तीखी टिप्पणियों के बाद मुझे लगा था कि कम से कम वामपंथ से जुङे मसले पर कुछ लिखने से बचना चाहेंगे। वैचारिक खुलेपन की पक्षधर यह पोस्ट पढ कर वह आशंका निर्मूल साबित हुई।
आत्ममंथन के अलावा और रास्ता ही क्या है ? आपकी संवेदनशीलता व समझदारी तथा आपका वैचारिक संतुलन आपके लेखन को एक अनूठा सामर्थ्य देता है .
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