Friday, November 16, 2007

वनगंध

एक बहुत चौड़ी नहर का पानी टर्बाइनों पर गिरकर बिजली बनाता था। नहर के इस पार बस्ती और उस पार जंगल था। एक पतला सा रास्ता नहर के बांध से जंगल में उतरने के लिए बना था, जिससे कभी लकड़ी तोड़ने तो कभी किसी और काम के लिए लोग जंगल में उतरते थे। दिशा-पानी के लिए उधर जाने का रिवाज नहीं था क्योंकि वह तो बिल्कुल ही जंगल था, कभी कुछ भी हो सकता था। कुछ-कुछ ऐसा ही डर उस तरफ भी था। पानी की उस चौड़ी लकीर को अपनी चौहद्दी मानकर जानवर इस तरफ आने से परहेज करते थे, हालांकि सफाई के लिए नहर पर एक पतले पुल की व्यवस्था भी थी, जिसका इस्तेमाल वे इधर आने में कर सकते थे।

पतले रास्ते से जंगल में उतरो तो थोड़ी दूर तक यह बस्ती जैसा ही नजर आता था। नहर में बहकर आने वाली लकड़ियां और करकट नहर बनने के बाद से ही वहां पड़े थे। और जानवरों की हड्डियां, जो कभी जंगल से नहर पर पानी पीने आए होंगे और धारा में खिंचकर डूब गए होंगे। हर सुबह टर्बाइन से ठीक पहले लगी जालियों की सफाई करते हुए ये सारी चीजें नहर से निकाली जाती थीं और जंगल की तरफ फेंक दी जाती थीं। उनकी सड़ांध जंगल में काफी दूर तक पीछा करती थी।

थोड़ा ही आगे जाने पर एक गहरा खड्ड आता था और रास्ता वहीं अचानक खत्म हो जाता था। चाहो तो खड्ड के किनारे-किनारे चलते चले जाओ। ऐसे नहर और बस्ती से तुम्हारी सुरक्षित दूरी बनी रहेगी। लोग अक्सर ऐसा ही करते थे। गर्मियों के दिनों में लकड़ियां तोड़ने और बकरियां चराने के लिए यह इलाका बिल्कुल सही था। यहां वन विभाग ने साल के पेड़ लगा रखे थे और छिटपुट कुछ झाड़ियां भी उगी हुई थीं। गौर से देखने पर कोई कांच का टुकड़ा, कोई फटा हुआ ताश का पत्ता, किसी जूते का तल्ला या कोई चिथड़ा नजर आ जाता था। लोग आपस में जिस जंगल जाने की बात करते थे वह यही था, लेकिन यह जंगल नहीं था।

जंगल उधर था, खड्ड के उस पार, जहां पहुंचने के लिए पेड़ों की जड़ें पकड़ते हुए लगभग घिसटकर नीचे उतरना पड़ता था। बारिश के दिनों में यहां पानी भरा रहता होगा, लेकिन अभी यहां सिर्फ पतली सी एक धारा बह रही थी। कहां से आ रहा होगा यह पानी, कहां जाता होगा? नहर तो बहुत बाद में बनी है। उससे तो इसका कोई रिश्ता हो नहीं सकता। क्या घुटनों-घुटनों पानी पार करके जंगल में जाने का कोई मतलब है... वह भी बिना किसी हथियार, बिना किसी सुरक्षा के?

खड्ड की नम तली में गाय-भैंसों के खुरों के निशान नजर आते हैं। शायद जंगल के उस पार कोई गांव है, जहां से जानवर चरने के लिए यहां तक आते हैं। किसी भी सूरत में इस जंगल की चौड़ाई दो-तीन किलोमीटर से ज्यादा नहीं होगी। क्या घुसकर देखें कि उस पार कहां निकलते हैं? अब चलना है तो चलना है। क्या इतना सोच-विचारकर कोई जंगल में उतरता है?

एक अजीब गंध थी- कचर हिरियाइन गंध, जो उधर तक पहुंचती जरूर होगी लेकिन पता नहीं क्यों पहले कभी महसूस नही हुई थी। कंटीली झाड़ियां, ऊंची घासें और इक्का-दुक्का ऊंचे पेड़ों के नीचे आपस में उलझे हुए से छोटे-छोटे पेड़। यहां रास्ता किधर से होगा? नहर से दो सौ गज दूर भी नहीं आए और एक जमाना गुजर गया सा लगता है। जमीन पर गिरा हुआ एक सूखा सड़ा खोखला पेड़। बगल में एक बहुत ऊंची दीमक की बांबी। मिनिएचर में किसी पुराने खंडहर जैसी संरचना, जिसे दीमक भी न जाने कब के छोड़कर जा चुके हैं।

यहां समतल कहीं नहीं है। उड्ढे हैं और गड्ढे हैं हर तरफ। जंगल की अपनी जमीन। लेकिन रास्ता यहां भी है। क्या दुनिया में अब ऐसी कोई जगह नहीं बची है, जहां कोई रास्ता न हो? कभी न कभी कोई न कोई हर जगह से गुजरा जरूर है। आदमी न सही, जानवर ही, लेकिन रास्ता बाकायदा है। पेड़ों, झाड़ियों और घासों के बीच बनती-टूटती, ऊपर-नीचे होती एक लकीर। क्या इसी पर होते हुए उस तरफ जंगल के पार निकल जाएं? लेकिन यह तो एक बस्ती से दूसरी बस्ती में जाना होगा। जंगल जाना नहीं होगा।

वह खुद में खुद को छिपाए हुए था। कोई ऐसा फल-फूल, कोई कंद-मूल वहां नहीं था, जिसे खाकर इन्सान बारह-चौदह साल तो क्या चार-छह घंटे भी गुजार सके। मजबूत जड़ों वाले जंडइल बेनामी पेड़ ही वहां खुद को जिंदा रखे हुए थे। जरा सी रोशनी के लिए उन्हें अपनी फुनगियों के लिए जगह अपने तमाम भाई-बंदों के बीच से, उन्हें दबाते-खरोंचते हुए बनानी पड़ती थी। जरा सा ढीला पड़ते ही कोई उन्हें खत्म कर देता था। ऐसे में वे क्या फूलते और क्या फलते। लेकिन फिर भी वहां आवाजों का अपना एक अलग संसार था।

सघन खामोशी में गूंजती लंगूरों, सियारों, गिलहरियों, हुदहुदों, चीलों और जंगली मैनाओं की आवाजें, कहीं दूर से आती ट्रक की दबी-बुसी घरघराहट को किसी और ही ग्रह की आवाज बनाती हुई । नहर, पॉवर हाउस, सड़क और तमाम नए-पुराने इन्सानी सरंजामों से बेखबर, उन्हें अपने हाल पर छोड़ती हुई सीली, अंधेरी, कचर हिरियाइन गंध वाली जंगल की अपनी दुनिया, जो दिनोंदिन सिमटते जाने के बावजूद न जाने कितने करोड़ वर्षों से ऐसे ही चल रही है...जो न जाने कितने साल और चल पाएगी।

5 comments:

Pratyaksha said...

जंगल की हरियाईन गंध यहाँ तक फैल चुकी है ।

ALOK PURANIK said...

विकट फोटोग्राफिक है जी।

मनीषा पांडे said...

बहुत सुंदर......

Sanjeet Tripathi said...

क्या लिखा है!! ऐसा लगा जैसे वहां खुद हो कर महसूस कर रहें हो!

मीनाक्षी said...

वनगंध शीर्षक मुझे यहाँ खींच लाया और इतना सजीव वर्णन कि लगा हम वहीं पहुँच गए.