Thursday, November 15, 2007

जूड़े की वापसी

याद नहीं आता कि किसी औरत को- बवालटलाई के लिए नहीं- बाकायदा सुंदर दिखने के लिए जूड़ा बांधे सड़क पर कब देखा था। 'ओम शांति ओम' फिल्म पर अभय तिवारी और अन्य मित्रों ने अपनी समीक्षा में दीपिका पादुकोण की काफी तारीफ की है लेकिन लगभग एक-सी दिखने वाली हीरोइनों और महिला मॉडलों की शक्ल से इस फिल्म की दीपिका को जो अकेली चीज बिल्कुल अलग करती है, वह उसका ठीक वैसा ही जूड़ा है, जैसा साठ दशक की फिल्मों में जब-तब वहीदा रहमान और सत्तर दशक में अक्सर हेमा मालिनी बांधा करती थीं। दीपिका के फिगर्स के अलावा उसके चेहरे पर मौजूद ग्रेस भी हेमा के बजाय वहीदा के कहीं ज्यादा करीब हैं, लिहाजा सचेत ढंग से 'ड्रीमी गर्ल' टाइटल से उसे हेमा जैसी दिखाने की कोशिश ज्यादा कामयाब नहीं हो पाई है।

जिस जमाने में बतौर हेयरस्टाइल जूड़ा फैशन में आया था, उसके साथ बाकायदा एक संस्कृति जुड़ी हुई आई थी। इसकी संगत उल्टे पल्ले की साड़ी के साथ बनती थी, जो शहरी-कस्बाई स्कूलों की मास्टराइनों से होती हुई धीरे-धीरे आम औरतों तक विस्तार पा रही थी। अस्सी के दशक की शुरुआत तक मेरे दिमाग में औरतों की सिर्फ दो छवियां थीं- सीधे पल्ले में चोटी किए सिर पर आंचल डाले घूंघट में (बकौल जयशंकर प्रसाद- शशिमुख पर घूंघट डाले आंचल में दीप छिपाए) या बिना घूंघट की पारंपरिक स्त्रियां (जिस श्रेणी में मेरी मां आती थी) और उल्टे पल्ले में जूड़ा बांधे आंचल को कभी जूड़े पर रखती कभी कंधे पर लपेटती आधुनिक स्त्रियां (बीएड करके एक स्कूल में पढ़ाने वाली मेरी जीजी मेरे लिए इस श्रेणी का प्रतिनिधित्व करती थीं)। लड़कियों की शाश्वत पोशाक शलवार-फ्रॉक या शलवार-कमीज हुआ करती थी।

सूट पहने लड़कियां और औरतें मैंने पहली बार सन् 1981 में दिल्ली में देखीं, जब घर के कलह से परेशान होकर इंटरमीडिएट का इम्तहान देते ही कहीं कोई नौकरी खोजने के लिए मैं यहां चला आया था। यह मुहिम कामयाब नहीं हुई और लगा कि मरते-जीते पढ़ाई पूरी कर लेना ही ठीक रहेगा। लिहाजा महीने भर के ऐडवेंचर के बाद आजमगढ़ की गाड़ी पकड़ ली गई, लेकिन इस बीच मन की दुनिया तो पूरी तरह बदल चुकी थी। इस नई दुनिया में आधुनिक लड़कियों और औरतों की पोशाक सिर्फ और सिर्फ सूट था। आधुनिक और पारंपरिक स्त्री की छवियां अब सीधे पल्लू वाली साड़ी और सूट के द्वैत में सिमट चुकी थीं और उल्टे पल्लू की साड़ी की जगह सिर्फ टेस्ट चेंज तक सिमटकर रह गई।

मजे की बात यह कि इस नए द्वैत में जूड़े के लिए कोई जगह नहीं रह गई थी। न सीधे पल्लू वाली साड़ी में, न सूट में। मौके-बेमौके पहनी जाने वाली उल्टे पल्लू वाली साड़ी में सबसे अच्छी फबन खुले बालों या तरह-तरह के सुंदर बनावटों वाले हेयरबैंड की बनने लगी। खास सजावटों के लिए बनाई जाने वाली हेयर स्टाइलों में जूड़े जैसी छवियां जब-तब जरूर दिखीं लेकिन आधुनिकता के एक मूल्य के साथ उसका जुड़ाव अब बीत चुका था। ऐसे में एक आम दर्शक की तरह दीपिका के जूड़े ने मुझे सिर्फ चौंकाया नहीं, एक बीते दौर की याद भी दिलाई, जिसका दखल वहीदा रहमान और हेमा मालिनी के ही नहीं, गांव से निकलकर शहर में गई बहुत सामान्य पृष्ठभूमि वाली मेरी बहन तक के जीवन में हुआ था।

आज 'ओम शांति ओम' की शांतिप्रिया की शक्ल लिए दीपिका के असर में लड़कियों के फैशन में अगर जूड़ा वापस लौटता है तो भी यह सिर्फ स्वाद बदलने की कसरत जैसा होगा। नए ढब के जीवन के लिए नई किस्म की पोशाक और चाल-ढाल अपनाने की जो गरिमामय मूल्यवत्ता इसके साथ जुड़ी थी, वह अब दुबारा कहां वापस आने वाली है।

4 comments:

आशुतोष उपाध्याय said...

आपकी पोस्ट से मुझे यदाकदा मन में उठने वाली ऐक जिग्यासा की याद हो आई। कम कपड़े पहनने वाली महिलाएं प्रगतिशील और आधुनिक क्यों कही जाती हैं! हालांकि महिलाओं की ड्रेस पर कुछ बोलना आग से खेलने जैसा है फिर भी हिमाकत कर रहा हूं। स्कूल-कालेजों में ड्रेस कोड लागू करने पर अकसर बवाल मचता है। महिलाओं के पहनावे पर मीडिया प्रायोजित बहसों में पलड़ा आधुनिक वस्त्रों की ओर झुकता दिखाई देता है और `ड्रेसकोड´ लागू करने वालों को अमूमन सामंती मानसिकता का ठहराया जाता है।

दकियानूस ठहरा दिए जाने के खतरे के बावजूद यहां महिलाओं के उस पहनावे की सामाजिक-मनोवैज्ञानिक वजहों को लेकर जिज्ञासा प्रकट की जा रही है, जो न केवल तथाकथित पेज-3 पार्टियों में दिखाई देते हैं बल्कि अब टीवी-फिल्मों की राह मध्यवर्गीय व कस्बाई जीवन में भी पहुंच रहे हैं। भद्रलोक की महिलाओं का अपना अघोषित `ड्रेसकोड´ है, जिसके बारे में अभी यह मालूम होना बाकी है कि इसे निर्धारित करने में खुद उनकी कितनी भूमिका है। जरा पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली कारपोरेट पार्टियों की तस्वीरों पर गौर करें। इनमें पुरुष पांव से गर्दन तक ढके नजर आएंगे। जूते-मोजे-सूट और गले में टाई। कई तो हैट-टोप से अपनी चांद तक को छुपाए रहते हैं। लेकिन महिलाएं! उनके शरीर का कम से कम दो-तिहाई हिस्सा खुला दिखाई देगा। ऐसे मौकों पर उन्हें मौसम की भी परवाह नहीं होती। मिनी स्कर्ट, माइक्रोटॉप और कई बार उससे भी कम!! चलिए पार्टी-शार्टी की बात छोिड़ए। कारपोरेट जगत में काम करने वाली महिलाओं के औपचारिक वस्त्रों को देखिए। यहां वे पुरुषों की तुलना में आधी ढकी दिखाई देती हैं।

आप कह सकते हैं, अरे ये तो `बड़े´ लोगों के चोंचले हैं, पश्चिम की देखा-देखी पहले ही इनका सांस्कृतिक पतन हो चुका है। लेकिन जरा मध्यवर्गीय समाज के कपड़ों पर गौर फरमाएं। मर्दों की कमीज और औरतों के ब्लाउज के कपड़े की माप में कितना अंतर होता है? मेरे एक परिचित वस्त्रविक्रेता के अनुसार, कमीज- दो से ढाई मीटर, स्लीवलैस ब्लाउज- ज्यादा से ज्यादा 75 सेमी। क्या कोई यह कह सकता है कि वस्त्रों के आकार में यह भीषण अंतर किन्हीं जीववैज्ञानिक मजबूरियों की वजह से है? शारीरिक संरचना पुरुषों और महिलाओं के वस्त्रों के डिजाइन को तो प्रभावित करती है लेकिन उनके बड़े-छोटे होने के बारे में कोई व्यवस्था नहीं देती। आखिर मर्दों के औपचारिक पहनावे में एक भी ड्रेस स्लीवलैस क्यों नहीं होती? मर्दों की कमीज कॉलरदार और महिलाओं की कमीज गहरे गले वाली क्यों? क्या पुरुषों को ठंड और महिलाओं को गर्मी ज्यादा सताती है? यही नहीं, महिलाओं के अधिकांश कपड़े उपरोक्त खूबियों के साथ-साथ कामकाजी जीवन के हिसाब से बेहद असुविधाजनक भी होते हैं। काम में पुरुषों की बराबरी करने वाली महिलाओं को हाईहील, स्कर्ट और टाइट टॉप जैसी घनघोर असुविधाजनक ड्रेस पहनने की क्या मजबूरी है? उनका चलने का ढंग इस बात की गवाही देता है कि कपड़े बेहद असुविधाजनक हैं।

हालांकि इन कुतर्कों को आसानी से मध्ययुगीन ठहराया जा सकता है। लेकिन आसानी से मुश्किल सवालों का हल नहीं निकलता। महिलाएं कैसे कपड़े पहनें, यह तय करना निसंदेह उनका मौलिक अधिकार है, लेकिन क्या कथित `आजाद´ महिलाओं का सौंदर्यबोध उनका अपना है? उन्हें बेहद छोटे, असुविधाजनक और यौनांग उभारने वाले कपड़ों में कौन देखना चाहता है? क्या खुद महिलाएं? यह मानव मनोविज्ञान का स्वाभाविक लक्षण है कि वह दूसरों की नजर में अच्छा दिखना चाहता है। पुरानी कहावत भी है- खाना अपनी और पहनना दूसरों की पसंद का। कोई अपनी नजर में अच्छा दिखने के लिए नहीं बनता-संवरता। तो फिर यह शरीर उघाड़ने वाले वस्त्र किसे दिखाने के लिए हैं?

हम अकसर इस बात को दोहराते हैं कि वर्तमान पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य मर्दों के पक्ष में झुके हुए हैं। हमारी पारिवारिक परिपाटियां औरतों की निजता और व्यक्तित्व की राह में आड़े आती हैं। मध्यवर्गीय संपन्न घरों की लड़कियां भी भाइयों की तुलना में आगे बढ़ने के कहीं कम अवसर और सुविधाएं पाती हैं। पारिवारिक संपत्ति पर उनके हक की हकीकत किसी से छुपी नहीं है। ऐसे में यह समझना निहायत जरूरी है कि उनके सौंदर्य संबंधी मानकों का निर्धारण वास्तव में कौन करता है। अपने `भड़काऊ´ वस्त्रों को `निजी´ पसंद और अधिकार मानकर भड़कने वाली महिलाएं क्या उन्हें `गर्म मसाला´ समझने वाली पुरुषवादी मानसिकता की गुलाम नहीं हैं? क्योंकि इस व्यवस्था का `कूल´ मालिक हमेशा `हॉट´ औरतों को ही पसंद करता है।

चंद्रभूषण said...

आशुतोष जी, आपकी टिप्पणी थॉट प्रोवोकिंग है और इसे अलग पोस्ट का दर्जा हासिल होना चाहिए। ऊपर की एक लाइन बदलकर या उसे उड़ाकर इसे अपनी एक पोस्ट बना दें ताकि इसपर ढंग से बात हो सके।

दीपा पाठक said...

चंदूजी क्या बात है आपकी दीपिका के जूडे से भी इतने दिलचस्प चिट्ठे का मसाला निकाल लाए। आशुदा आपकी टिप्पणियां हमेशा लंबी-चौङी और सारगर्भित होती हैं, वो वाकई एक पोस्ट का दर्जा रखती हैं। जबकि बुग्याल में काफी दिनों से कोई हलचल नहीं है। ऐसा क्यों?

मनीषा पांडे said...

चंद्रभूषण जी, वाकई आशुतोष जी की टिप्‍पणी को एक अलग पोस्‍ट का दर्जा हासिल होना चाहिए। उन्‍होंने सही बात पर सही कोण से उंगली रखी है। मेरी सहमति है, लेकिन जैसाकि यथार्थ कभी भी एककोणीय नहीं होता, इस विमर्श के और भी ढेरों पहलू हैं। पर बातों की दिशा बिल्‍कुल सही है।