Wednesday, November 14, 2007

पुरुरवा-उर्वशी और डीडी कोसांबी

1951 में दामोदर धर्मानंद कोसांबी ने उर्वशी-पुरुरवा प्रसंग से संबंधित 18 ऋग्वैदिक ऋचाओं को रोमन लिपि में प्रकाशित किया और साथ में सरसरी टिप्पणी के साथ इनका शब्दानुवाद भी दिया। ठीक यहीं से शुरू हुई उनकी खोज का नतीजा था इसके दस साल बाद आई उनकी कालजयी कृति 'मिथ ऐंड रियलिटी' का दूसरा अध्याय 'उर्वशी ऐंड पुरुरवस'।

अध्याय की शुरुआत कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशीयम्' के सार-संक्षेप की प्रस्तुति से होती है, जिसमें उर्वशी को इंद्र के दरबार की नर्तकी माना गया है। नृत्य के समय उर्वशी के मुंह से इंद्र के लिए 'पुरुषोत्तम' की बजाय गलती से 'पुरुरवस' निकल जाने के एवज में उसे मृत्युलोक जाने की सजा सुनाई जाती है। यहां मात्र एक साल में समाप्त हो जाने के लिए अभिशप्त उर्वशी और पुरुरवा का प्रेम इस नाटक की जटिल कथावस्तु का आधार बनता है। इस किस्से का सार-संक्षेप प्रस्तुत करके कोसांबी सीधे शतपथ ब्राह्मण, और वहां से ऋग्वेद की तरफ मुड़ जाते हैं, जो उर्वशी के मिथक का उद्गम स्रोत है।

ऋग्वेद में पुरुरवा और उर्वशी के बीच बातचीत बिना किसी पूर्वपीठिका के अचानक शुरू हो जाती है- 'आह, हे पत्नी, अपना यह हठ छोड़ दो। अरे ओ हृदयहीन, आओ हम प्रेमालाप करें। हमारे मंत्र यदि अनकहे रह गए तो आने वाले दिनों में वे निष्फल हो जाएंगे।'

उर्वशी- 'तुम्हारे प्रेमालाप से मुझे क्या लेना? उषा की पहली किरण की तरह मैं उस पार जा चुकी हूं। हे पुरुरवस, अपनी नियति में लौट जाओ। मुझे पकड़ना उतना ही कठिन है, जितना हवा को पकड़ना।'

लेकिन पुरुरवा अपने 'नायकोचित दृढ़निश्चय' और 'लक्ष्य की तरफ तीर की तरह बढ़ने' की बात करता है। तब उर्वशी कहती है, 'दिन में तीन बार अपने शिश्न से मुझे भेदते हुए तुमने मुझे गर्भवती बना दिया है, हालांकि इसके प्रति मैं अनिच्छुक थी। पुरुरवस, मैंने तुम्हारी आकांक्षाओं के आगे समर्पण किया। हे नायक, उस समय तुम मेरे शरीर के राजा थे।'

पुरुरवा कहता है, 'वह गिरती हुई बिजली की तरह कौंधी, मुझे प्यासे पानियों में लेती गई, पानी में से एक सुंदर लड़का जन्मा। उर्वशी दीर्घ जीवन दे।'

लेकिन अगली ही ऋचा में स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। उर्वशी कहती है, 'मैं, प्रारंभकर्ता (नए जीवन का प्रारंभ करने वाली) ने, उसी दिन तुझे चेतावनी दी थी। तूने मेरी एक न सुनी, अब तू इतना भोला बनकर क्यों बोलता है? '

पुरुरवा अनुनय-विनय करता है कि उसका बेटा अपने बाप के लिए रोएगा, आंसू बहाएगा, तो जवाब में उर्वशी कहती है- 'मेरे पवित्र पद का ध्यान रखते हुए वह नहीं रोएगा।...अपनी नियति की ओर जा ओ मूर्ख, तू मुझतक नहीं पहुंच सकता।'

पुरुरवा पहले झींखता हुआ विलाप करता है- 'स्त्रियों के साथ मित्रता नहीं हो सकती, उनके हृदय लकड़बग्घों के हृदय जैसे होते हैं', और फिर शांत हो जाता है- 'मैं, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, वायुमंडल को अपने विस्तार से भर देने वाली, आकाश पार करने वाली उर्वशी के आगे नतमस्तक हूं। सभी सत्कर्मों का पुण्य तुम्हारा हो, पलट जाओ, मेरा हृदय (भय से) उत्तप्त है।'

उर्वशी के इस कथन के साथ प्रकरण जिस तरह अचानक शुरू हुआ था, उसी तरह समाप्त हो जाता है- 'ये देवता तुझसे यही कहते हैं, इला के बेटे; अब तेरी मृत्यु निश्चित है। तेरी संततियां देवताओं को बलि अर्पित करती रहेंगी, लेकिन तू स्वयं स्वर्ग में आनंद करेगा।'

पूरा प्रसंग एक नजर में इतना बौखला देने वाला है कि अति प्राचीन समय में भी इसका कोई तार्किक अर्थ निकाल पाना कवियों और विद्वानों के लिए असंभव सिद्ध हुआ। यहां तक कि शतपथ ब्राह्मण में भी इसे तार्किक बनाने के लिए इसके साथ कुछ मनमानी शर्तें जोड़नी पड़ीं। इस ग्रंथ में उर्वशी पुरुरवा से प्रेम करती है लेकिन उसे अपना पति इस शर्त के साथ ही स्वीकार करती है कि पुरुरवा को वह नग्न अवस्था में कभी नहीं देखेगी।

दोनों काफी समय तक साथ रहते हैं और उनका एक बच्चा भी होता है लेकिन गंधर्व उसे वापस ले जाने पर अड़े हुए हैं और ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि पुरुरवा की नग्नता एक बार उर्वशी के सामने बिजली की तरह कौंध जाती है। उसी क्षण उर्वशी उसे छोड़कर चली जाती है। एक दिन दुखी पुरुरवा एक झील के किनारे टहल रहा है, तभी हंसरूपधारिणी उर्वशी उसके सामने प्रकट होती है और दोनों के बीच उक्त ऋग्वैदिक संवाद जैसी ही बातचीत होती है।

देश-दुनिया में इस विचित्र ऋग्वैदिक प्रसंग की- जिसमें कहीं यह तक नहीं बताया गया है कि पुरुरवा और उर्वशी कौन है, उनके बीच यह बातचीत क्यों हो रही है, इसका आगाज क्या है और इसका अंजाम क्या हुआ- विभिन्न काव्यशास्त्रीय, भाषाशास्त्रीय और नृतत्वशास्त्रीय व्याख्याएं की गई हैं, लेकिन अपनी किताब में कोसांबी कीथ, गेल्डनर, ओल्डेनबर्ग और मैक्समूलर का हवाला देते हुए उन्हें ठोस तर्कों के आधार पर सिरे से नकार देते हैं।

मैक्समूलर के यहां इस प्रसंग को प्रतीकात्मक बताते हुए इसे मात्र सूर्योदय की गाथा बताया गया है, जबकि कीथ के यहां इसे मनुष्यों और स्वर्गिक स्त्रियों के अंतर्संबंध को लेकर दुनिया भर की सभ्यताओं में मौजूद कथाओं की श्रृंखला में ही एक कड़ी माना गया है। ओल्डेनबर्ग मानते हैं कि यह प्रसंग इतनी बौखलाहट पैदा करने वाला इसलिए है क्योंकि वेदों के स्मृति आधारित संकलन में बीच के गद्यांश कहीं खो चुके हैं।

इन विद्वानों की तुलना में कोसांबी की अपनी व्याख्या पद्धति अटकलबाजियों से परहेज करने वाली, अत्यंत सरल लेकिन अपने निष्कर्षों में चौंकाने वाली है। इस पद्धति का जिक्र वे इन शब्दों में करते हैं- 'पाठ के यथासंभव शाब्दिक अर्थ पर टिके रहते हुए सभी विरोधाभासों को जहां तक हो सके, अंत-अंत तक अनसुलझा ही छोड़ दिया जाए, और फिर संपूर्ण का कोई बोध ग्रहण करने का प्रयास किया जाए।'

इस पद्धति के आधार पर कोसांबी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उर्वशी से एक संतान होने के बाद पुरुरवा की बलि दी जानी है। उपरोक्त संवाद में वह उर्वशी से अपने प्राणों की भीख मांग रहा है, जिसका अनसुना होना तय है। कोसांबी के अनुसार यह एक आदिम कर्मकांड, एक उर्वरता का मिथक है, जो दुनिया भर के नृतत्वशास्त्रियों के लिए बड़ी जानी-पहचानी चीज है।

उर्वरता की देवी या मातृदेवी का प्रतिनिधित्व उसकी पुजारिन ही किया करती थी। किसी सर्वांग-संपूर्ण, सर्वगुणसंपन्न पुरुष को एक साल के लिए उसका पति चुना जाता था और फिर उसकी बलि दी जाती थी। यह कर्मकांड वैदिक युग के आगमन तक कालातीत हो चुका होगा, लेकिन उसका मिथक जीवित रह गया होगा।

यानी कोसांबी की व्याख्या के मुताबिक ऋग्वेद का उर्वशी-पुरुरवा प्रसंग दरअसल पूर्व वैदिक कबीलाई समाज की पुजारिन और उसके पति के बीच का संवाद है, जिसका उपयोग वैदिक युग में किसी अनुष्ठान विशेष पर खेले जाने वाले नाटक की तरह किया जाता रहा होगा। यहां कोई चीज अगर गायब है तो सिर्फ स्टेज डाइरेक्शन के नोट्स, न कि कथा का कोई हिस्सा, जैसा कि ओल्डेनबर्ग मानते हैं। अध्याय के अंत में कोसांबी 'विक्रमोर्वशीयम्' पर लौटते हैं, इस टिप्पणी के साथ कि कालिदास ने अपने नाटक में अपनी सभ्यता के सबसे पुराने नाटक की ही पुनर्प्रस्तुति का प्रयास किया है।

2 comments:

अभय तिवारी said...

दिलचस्प!

Avinash Das said...

अलौकिक प्रसंग! लौकिक व्‍याख्‍या!!