Sunday, November 18, 2007

बियाहुती को दे देना

करीब पांच पुश्त पहले के सभी पुरुषों के नाम मेरे गांव में ज्यादातर लोगों को पता होंगे, और उनमें से हर-एक से जुड़ा कोई न कोई किस्सा भी। लेकिन मेरी तीसरी ही पुश्त में पड़ने वाले एक सज्जन ऐसे हैं, जिनका नाम उनसे सीधा खून का रिश्ता रखने वालों को भी याद नहीं है। दरअसल, यह सहज विस्मृति का मामला नहीं है। गांव में उनका नाम सचेत ढंग से भुलाने की कोशिश की गई है, जो कानाफूसियों की निरंतरता के बावजूद पता नहीं कैसे कामयाब भी हो गई।

गर्मियों की आलस भरी दुपहरों में जब औरतों का जमावड़ा किसी के निंदारस में डूबा रहता तो कभी-कभी उनका जिक्र भी आ निकलता। लेकिन बातचीत में उनकी याद उनका नाम लेकर नहीं, किसी संबंध के जरिए- जैसे 'तिलकधारी पंडित के भाई' के रूप में की जाती। सोने के भारी गहने पहनने वाली एक औरत- तिलकधारी पंडित की मंझली बहू- बाकी औरतों के लिए खासी ईर्ष्या का विषय बनी रहती और उसी के बहाने औरतें 'उनको' भी याद कर लिया करतीं।

सुविधा के लिए उनका नाम हम बटेस्सर रख लेते हैं। बटेस्सर पंडित का बचपन और जवानी कैसी थी, वे कहीं नौकरी-चाकरी करते थे या खेती-बाड़ी में ही लगे हुए थे, इस बारे में अब कहीं कोई सूचना बाकी नहीं है। अपने तमाम हमउम्र लोगों की तरह उनका भी शादी-ब्याह हुआ था और उनकी पत्नी बुढ़िया होकर मेरे छुटपन में मरी थीं। उनकी शक्ल मैंने नहीं देखी क्योंकि काफी समय पहले से वे चार-पांच कोस दूर अपने मायके में रह रही थीं।

बटेस्सर पंडित की शादी हुई, गौना आया, और गौने के कुछ महीने बाद ही वे घर से लापता हो गए। इस भारी आपदा को पता नहीं क्यों उनके घर में काफी हल्के ढंग से लिया गया। उनके छोटे भाई तिलकधारी पंडित ने संस्कृत माध्यम से शास्त्री की परीक्षा पास की और आजमगढ़ शहर की क्षत्रिया पाठशाला में पढ़ाने लगे। चालीस-पचास के दशक में गांव में किसी के घर कुछ नकदी आमदनी आना खुद में बड़ी नियामत थी। लेकिन मास्टरी में इतने पैसे न तब मिलते थे, न अब मिलते हैं कि अचानक किसी की पहचान छोटे आदमी से बड़े आदमी की हो जाए।

तिलकधारी पंडित के साथ जब देखते-देखते ऐसा ही हो गया तो गांव में लोगों को इसका राज पता करने की धुन सवार हुई। उनकी यह कोशिश काफी समय बीत जाने के बाद रंग लाई, जब जैसे-तैसे करके तीजू कहार ने भेद खोला कि तिलकधारी पंडित की अमीरी की वजह उनके बड़े भाई बटेस्सर पंडित हैं।

तीजू एक दिन कहीं दूर के गांव में बहंगी पहुंचाकर लौट रहे थे और पड़ोस के बाजार में पानी पीने के लिए रुक गए थे। तभी दुकान में से किसी फुसफुसाती आवाज ने उनका नाम पुकारा। इधर-उधर देखकर उस तरफ नजर फेरी तो पाया कि घूंघट काढ़े, शाल ओढ़े एक पर्देदार औरत वहां बैठी हुई है। पहले तीजू ने उसे अनदेखा किया, फिर सोचा कि शायद गांव की ही कोई औरत हो और उनसे कुछ पूछना चाहती हो। पास गए, पूछा, 'दुलहिन कुछ कह रही हैं?'

एक अजीब सी जनखानुमा आवाज पर्दे से बाहर आई- 'तीजू, हम हैं, बटेस्सर '।

'अरे भइया, आप? ऐसे!'

बटेस्सर बोले कि अब ऐसे ही है। पता चला कि घर से भागे बटेस्सर पंडित ने कहीं जाकर अपना यौन परिवर्तन करा लिया था और हिजड़ों के साथ रहने लगे थे। तीजू से कहकर उन्होंने अपने छोटे भाई तिलकधारी पंडित को गांव से बुलवाया। वे बाजार आकर उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं थे। आखिर वे एक शिक्षक थे और गांव-पुर में उनकी भी कोई इज्जत थी। लेकिन थके हुए तीजू ने एक ही दिन में बाजार का दूसरा चक्कर लगाकर जब उन्हें बताया कि बटेस्सर भइया उन्हें कुछ देना चाहते हैं तो जैसे-तैसे वे राजी हो गए।

तीजू गांव की प्रजा थे और उन्हें पता था कि पंडिताने की तरफ से साफ चेतावनी मिलने के बाद जुबान खुलने का नतीजा क्या होगा। लेकिन जुबान तो जुबान है, कुछ समय बीतने के बाद फिसलते-फिसलते फिसल ही गई।

तीजू का कहना था कि राधेश्याम हलवाई की दुकान के पिछवाड़े घूंघट काढ़े बैठे बटेस्सर पंडित का चेहरा उन्होंने अंत-अंत तक नहीं देखा। छोटे भाई को देखकर उन्होंने जो रोना शुरू किया तो हिचकियां रुकने को ही न आईं। अलबत्ता उनसे बात करते हुए तिलकधारी पंडित की आफत आई हुई थी। कोई देख न ले, किसी को पता न चल जाए, कहीं ये ऐसे ही बार-बार आने-जाने न लगें। दो हाथ दूर रूखे बैठे रहे, घर-परिवार की हाल-चाल तक नहीं बताई। बार-बार यही कहते रहे कि अब तुम्हारी अलग जिंदगी है, हमारी अलग।

चलते-चलते एक पोटली बटेस्सर पंडित ने तिलकधारी पंडित के हाथ में सौंपी और कहा- 'यह मेरी बियाहुती (ब्याहता पत्नी) को दे देना।'

तीजू ने अपने जीवन में सिर्फ एक बार, नशे की हालत में या भावुक मानसिकता में किसी एक आदमी को (पता नहीं किसको) यह किस्सा बताया था कि वह पोटली बहुत भारी थी। शायद उसमें कुछ सोना-चांदी रहा हो। पोटली अगर हल्की होती तो शायद बियाहुती के पास पहुंच भी जाती। भारी थी, सो कहां पहुंचनी थी। वह जमीन से उभरते हुए एक आदमी को और ज्यादा तेजी से उभारने के काम आ गई।

ससुराल में देवरों-देवरानियों के राज में दाने-दाने और सूत-सूत की मोहताज हुई बटेस्सर पंडित की ब्याहता अपना पहाड़ जैसा बाकी जीवन काटने मायके चली गईं, जहां बटेस्सर पंडित के लिंग परिवर्तन के बाद भी उन्हीं के नाम का सिंदूर पहनते उनकी मृत्यु हुई। उनके पति के साथ-साथ खुद उनके नाम की विस्मृति में भी पूरे गांव की भागीदारी रही, लेकिन गांव की औरतें किसी ऐंठन की शक्ल में उनके दुख की छाप उनकी मौत के काफी साल बाद तक बचाए हुए थीं।

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