Monday, October 22, 2007

स्त्री विमर्श में सीता

नवरात्रों के ठीक बाद, शक्तिस्वरूपा दुर्गामूर्तियों के विसर्जन वाले दिन हमें भारतीय स्त्री के एक और अलौकिक रूप के दर्शन होते हैं। यह सीता हैं- महाभारत के योद्धाओं के लिए भी स्तुत्य माने गए महायुद्ध के बाद लंकापति रावण का बंधु-बांधवों सहित विनाश कर चुके राम की बगल में- शायद अग्निपरीक्षा दे चुकने के बाद- अधरों पर महिमामयी मुस्कान लिए चुपचाप खड़ी, आशीर्वाद की मुद्रा में एक हाथ ऊपर उठाए, सबको दर्शन लाभ कराती हुई। इसके थोड़े ही समय बाद अयोध्या में घटित होने वाले उस घटनाक्रम से अनजान, जिसके तहत गर्भावस्था में उन्हें दुबारा वनवास दे दिया जाएगा। और इस बार चौदह साल जैसी किसी निश्चित अवधि के लिए नहीं। आजीवन, मृत्युपर्यंत।

सीता, एक ऐसी स्त्री, जिसके जैसी बनने की सीख भारतीय लड़कियों को युगों-युगों से दी जाती रही है, लेकिन जिसकी भीषण नियति का खौफ लोगों को अपनी बेटियों को वैदेही, मैथिली और जानकी जैसे सुंदर नाम देने तक से रोक देता रहा है!

भारतीय मिथकों पर अपने संक्षिप्त, लेकिन महत्वपूर्ण काम में डॉ. राम मनोहर लोहिया सीता को एक ऐसी पारंपरिक भारतीय स्त्री के रूप में रेखांकित करते हैं, जिसके जैसा न बनने का संकल्प लेकर ही आज की भारतीय स्त्री को अपने वयस्क जीवन की शुरुआत करनी चाहिए। इसके बरक्स लोहिया द्रौपदी के मिथक में एक सशक्त आधुनिक भारतीय स्त्री की झलक देखते हैं- पुरुष जाति के प्रति कहीं ज्यादा सहज, अपनी धुन में मगन, अपनी इयत्ता के लिए कठिनतम फैसले लेने और उनकी भीषणतम परिणतियों के लिए तैयार रहने वाली स्त्री।

लेकिन समाज में मिथकों की जगह समय की जरूरतों से ज्यादा अनजाने में बनते चले जाने वाले लगावों से तय होती है। शायद यहीं सीता के मिथक के मूल्यांकन में लोहिया कुछ बेसब्री बरत जाते हैं।

एक चरित्र के रूप में सीता की विडंबना उनकी किसी व्यक्तित्वगत कमजोरी में नहीं, इस चिर यथार्थ में निहित है कि एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया में किसी स्त्री का बल, विवेक, बुद्धि, सौंदर्य, नैतिकता, दृढ़निश्चय- उसके सारे सद्गुण किसी पुरुष की तरह उसके पक्ष में जाने के बजाय अनिवार्यतः उसके विरुद्ध खड़े होते जाते हैं। लोहिया जो भी कहें, लेकिन यह कोई इतनी आसान समस्या नहीं है, जिसका समाधान मिथकों की अदला-बदली के जरिए खोजा जा सके। यह एक युगप्रश्न है, जो सीमोन द बोउआ से लेकर जर्मेन ग्रिएर तक विभिन्न नारीवादी सिद्धांतकारों को लगातार तंग करता आ रहा है।

लोहिया द्वारा सीता की जगह द्रौपदी की स्थापना का प्रयास पचास और साठ के दशक में उभरी नारीवाद की उस स्वच्छंदतावादी उपधारा से प्रभावित लगता है, जिसकी परिणति आज हम 'पुरुष की गुलामी से पुरुष वर्चस्व वाले बाजार की गुलामी ' में होते देख रहे हैं। यह और बात है कि एक मिथकीय चरित्र के रूप में द्रौपदी भी इतनी सरल नहीं हैं कि पुरुषों के प्रति उनके अपेक्षाकृत खुले नजरिए को आधुनिकता के फास्टफूड की तरह परोसा जा सके।

वाल्मीकि कृत जिस महाकाव्य को रामकथा का सबसे प्रामाणिक स्रोत माना जाता है, उस रामायण के प्रमुख चरित्रों में सीता सबसे कम बोलने वालों में से हैं। पूरे ग्रंथ में कुल पांच या छह मौके ऐसे आते हैं, जब वे एक साथ पांच-दस वाक्य बोलती हैं। उनकी बातें हर बार मौके की जगह पर आती हैं और महत्वपूर्ण फैसलों की वजह बनती हैं, लेकिन देश-दुनिया के अन्य महाकाव्यों की नायिकाओं से तुलना करके देखें तो सीता कुछ ज्यादा ही चुप्पा ठहरती हैं।

ऐसी गिनी-चुनी बातों में पहली चित्रकूट में आती है, जब वे राम को एक प्राचीन कथा सुनाती हैं। इससे प्रभावित होकर राम यह संकल्प लेते हैं कि आगे से बिना किसी उकसावे के वे किसी का भी वध नहीं करेंगे। इसके करीब बारह साल बाद, वनवास के अंतिम वर्ष में दो बातें पंचवटी में आती हैं- एक स्वर्णमृग प्रकरण में लक्ष्मण से कहा गया कटु वचन और दूसरी, भिक्षुक वेषधारी रावण से बातचीत। फिर दो बातें हनुमान से अशोक वाटिका में- एक, चुपचाप राम के पास चले चलने का उनका प्रस्ताव खारिज करते हुए और दूसरी, युद्ध के बाद राक्षसियों का वध करने की सोच का विरोध करते हुए- 'ना परः पाप मा आदेत' (औरों के पाप का अनुसरण नहीं करना चाहिए।)

इस श्रेणी में आने वाला सीता का अंतिम कथन संभवतः वह है, जो उन्हें दूसरी और अंतिम बार वन में छोड़कर लौट रहे म्लानमुख लक्ष्मण से उन्होंने कहा है- 'राजा से जाकर कहना कि एक प्रजा की तरह मेरा भी ध्यान रखें। '

महाकवि वाल्मीकि की प्रतिबद्धता अपनी रचना में पूरी तरह अपने नायक राम से है। सीता उनके लिए एक अपरिहार्य लेकिन कम महत्वपूर्ण पात्र हैं। फिर भी, बिना किसी सचेतन चाहना के यह पात्र कथा का अंत आते-आते कवि के हृदय के इतने करीब पहुंच जाता है कि वे उसे अपनी धर्मपुत्री बना लेते हैं।

दरअसल, सीता की शक्ति उनके किए गए कार्यों या कहे गए शब्दों में नहीं है। यह 'बिटवीन द लाइन्स' जैसी कोई चीज है, जिसे आत्मसात करने में अधिक संवेदना और समय की दरकार होती है। आज की प्रचलित भाषा में कहें तो सीता अपने पति के जिंदा रहते 'सिंगल मदर' की तरह जीने वाली पहली मिथकीय स्त्री हैं।

सीता के दो कम चर्चित नाम भूमिसुता और वनदेवी भी हैं। इनमें से एक का जुड़ाव उनके जन्म से है तो दूसरे का मृत्युपर्यंत वनवास से। यह धरती अगर सीता की माता न होती तो भी उनके दुख इतने बड़े थे कि उनके बारे में सुनकर उसकी छाती फट जाती।

प्रलोभनों और प्रताड़नाओं से भरी रावण की लंबी कैद का सामना उन्होंने जिसे संबल मानकर किया, वही राम जब एक विजित वस्तु की तरह अपनी सेना के सामने उन्हें खड़ा करके कहते हैं- 'आत्मसम्मान और कुल मर्यादा की रक्षा के लिए मैंने लंकाधिपति रावण का वध करके तुम्हें मुक्त करा लिया है। अब ये नल-नील-अंगदादि महायोद्धा तुम्हारे सामने खड़े हैं, इनमें से किसी का भी वरण तुम अपने पति के रूप में कर सकती हो।' या फिर उस वक्त, जब प्रारंभिक गर्भावस्था की अशक्तता में बिना किसी पूर्वसूचना के उन्हें निर्जन वन में अकेला छोड़ दिया गया था।

ऐसे समय में अगर धरती फटती और सीता उसमें समा जातीं तो यह आत्मघात होता। सीता के चरित्र की बनावट कुछ ऐसी है कि वे ऐसा नहीं कर सकती थीं। कोई बहुत बड़ी बात अभी बाकी है, जिसे उन्हें सिद्ध करना है। जब हम मिथकों के बारे में कुछ कहने निकलें तो सीता के इस विराट धीरज का कोई न कोई हिस्सा हमारे भीतर भी मौजूद होना चाहिए।

अपनी संतान को जन्म देना स्त्री के लिए सबसे कठिन कार्यों में एक माना गया है। जंगल में अकेली सीता न सिर्फ अपने जुड़वां बेटों को जन्म देती हैं, बल्कि उन्हें ऐसे योद्धाओं के रूप में ढालती हैं, जो राम की पूरी सेना को परास्त करके दिग्विजयी होने का उसका गर्व चूर कर देते हैं। सोहराब और रुस्तम के फारसी मिथक में मौजूद नियति की नाटकीयता से कोई चीज अगर इस कथा को बिल्कुल अलग करती है तो वह सीता के रूप में व्यक्त हो रही स्त्री नियति की नाटकीयता है। यहां पहुंचकर सीता का चरित्र पूरा हो जाता है और फटी हुई धरती में उनका विलोप आत्मघात की परिभाषा से बाहर चला जाता है।

मिथक को उसके अंतर्विरोधों में पकड़ने में लोहिया शायद कुछ जल्दबाजी बरत जाते हैं, इसीलिए आधुनिक भारतीय स्त्री के लिए सीता को अप्रासंगिक बताने में उन्हें कोई हिचक महसूस नहीं होती। लेकिन भारतीय स्त्रियों के लिए- चाहे वे पारंपरिक हों या आधुनिक- सीता की प्रासंगिकता बची रह जाती है। धरती में समा जाने के बाद भी मौके-बेमौके रिसते हुए घाव की तरह वे उनके भीतर टीसती रह जाती हैं।

न जाने किस जमाने से गाए जा रहे एक भोजपुरी गीत में लव-कुश अपनी माता से अपने संबंधियों के बारे में पूछते हैं- वे कौन हैं, कहां रहते हैं। सीता बताती हैं- 'तुम्हारे दादा और नाना अयोध्या और मिथिला के महाप्रतापी राजा थे। तुम्हारे चाचाओं के पराक्रम का लोहा पूरी दुनिया मानती है। यही नहीं, लंका को जलाने वाले महावीर हनुमान तुम्हारे सगों से भी बढ़कर हैं।' लेकिन दोनों बच्चे जब उनसे अपने पिता के बारे में पूछते हैं तो सीता का संचित आक्रोश धधक उठता है। तमक कर वे कहती हैं- 'बाप पपिया का तो नाम भी मुझसे मत पूछना। '

3 comments:

ghughutibasuti said...

अच्छा लिखा है किन्तु हर स्त्री को इन सब मिथकों से बचकर अपनी राह स्वयं बनानी होगी ।
घुघूती बासूती

बोधिसत्व said...

सीता को केंद्र में रख करक कौन अपने विमर्श को आगे बढ़ाने की हालत में है भाई....

भवितव्य आर्य said...

अनसुना सत्य जानने हेतु नीचे शब्दों पर क्लिक करें और पढ़ें...!!

राम ने न तो सीता जी को वनवास दिया और न शम्बूक का वध किया