हरियर फुनगी नजर न आए
पीयर पात चहूं दिस छाए
हवा हिलोरि-हिलोरि बहे
मोरे मन महं आज बसंत रहे
गोरी तोरी देह बहुत सुकुआरी
केस झकोरि-झकोरि कहे
तोरे संग-संग में
मोरे अंग-अंग में
सुर लय गति ताल अनंत रहे
मोरे मन महं हां मह-मह महके
तोरे तन महं हां दह-दह दहके
धरती अंबर चह-चह चहके
गोरी तोरी-मोरी प्रीत चिरइया के
पर लागि अकास चलंत रहे
मोरे मन महं आज बसंत रहे
4 comments:
रस में चभोर दिए हैं एकदम से, रससिक्त करने वाली कविता.
हाँ! ई ग्लोबल वार्मिंग के असर त ना ह?
धाय गरमी धाय जाड़ा. मौसम के अदलत-बदलत बसन्ते-बसंत ह.
bahut sundar.....
क्या बात है विधाता.....आपने तो जुलुम कर रखा है......सरस है सब कुछ
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