Sunday, October 7, 2007

एक रसढारक प्रणयगीत

हरियर फुनगी नजर न आए
पीयर पात चहूं दिस छाए
हवा हिलोरि-हिलोरि बहे
मोरे मन महं आज बसंत रहे

गोरी तोरी देह बहुत सुकुआरी
केस झकोरि-झकोरि कहे
तोरे संग-संग में
मोरे अंग-अंग में
सुर लय गति ताल अनंत रहे

मोरे मन महं हां मह-मह महके
तोरे तन महं हां दह-दह दहके
धरती अंबर चह-चह चहके
गोरी तोरी-मोरी प्रीत चिरइया के
पर लागि अकास चलंत रहे

मोरे मन महं आज बसंत रहे

4 comments:

अनामदास said...

रस में चभोर दिए हैं एकदम से, रससिक्त करने वाली कविता.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

हाँ! ई ग्लोबल वार्मिंग के असर त ना ह?
धाय गरमी धाय जाड़ा. मौसम के अदलत-बदलत बसन्ते-बसंत ह.

पारुल "पुखराज" said...

bahut sundar.....

बोधिसत्व said...

क्या बात है विधाता.....आपने तो जुलुम कर रखा है......सरस है सब कुछ