आरा जेल के वॉलीबॉल फील्ड में एक सज्जन मेरी ही साइड से खेल रहे थे। गेम तो उनका एं-वें ही था लेकिन ललकारने में बड़े उस्ताद नजर आ रहे थे। इस खेल में खेलने वाले जितना ही महत्व ललकारने वाले का भी हो जाता है, खासकर तब जब नियम-कानून जानने वाले कम हों और मानने वाले और भी कम हों। खेल खत्म होने पर उन्होंने खैनी बनाई और बाकी खैनिहों की तरह मेरी तरफ भी बढ़ाई। मैंने उनकी दी हुई खैनी होंठ में दबाई और पूछा, आप किस बैरक में हैं। उन्होंने पांच नंबर बताया।
आरा में 1857 के वीर कुंअर सिंह की घुड़साल को ही जेल में बदल दिया गया है। एक कतार में साथ जुड़ी हुई कुल छह घुड़सालें जो अब बैरक नंबर एक से लेकर छह तक के नाम से जानी जाती हैं। मेरी बैरक का नंबर चार था, सो मैंने सज्जन से कहा, चलिए पड़ोसी ही हैं, जोर से खांसेंगे तो आधी रात में भी आवाज कान में पड़ती रहेगी। जेल में लंबे समय से रह रहे अपने साथियों से मैंने पूछा कि ये कौन हैं। उन्होंने कहा, ' कौन, चौबे जी? अरे ये तो पूरे पटना जोन में जेबकतरों के उस्ताद हैं, हालांकि फिलहाल मर्डर में अंदर हैं।'
मेरे मित्र-परिचितों में हर तरह के लोग शामिल रहे हैं, सिर्फ जेबकतरों से कभी दोस्ती नहीं रही, लिहाजा चौबे जी को लेकर मन में सहज ही उत्सुकता और आत्मीयता उमड़ आई। अगले हफ्ते भर में कभी नहाते वक्त चापाकल पर तो कभी वॉलीबॉल फील्ड में मिलते-मिलते उनसे मेरी खूब पटने लगी। बाद में जब जेल की बदइंतजामी के खिलाफ हम लोगों ने भूख हड़ताल शुरू की तो हमारे अपने दायरे से बाहर के लोगों को अनशन पर बिठाने में चौबे जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हल्की मूंछों के साथ हमेशा ठीक उतनी ही बड़ी दाढ़ी रखने वाले चौबे जी के चेहरे-मोहरे और हाव-भाव में ऐसी कोई बात नहीं थी जो अचानक आपका ध्यान अपनी तरफ खींच ले। भीड़ में भीड़ बनकर रहना उनके पेशे की खासियत थी, जिसे अपने लंबे कार्यकाल में उन्होंने आत्मस्थ कर लिया था। उनसे बात करके मैंने उनके काम के बारे में बहुत सारी बातें जानीं, यह और बात है कि इस मुलाकात के बमुश्किल पांच-छह महीने बाद दिल्ली की बसों में दो बार मेरी जेब से पैसे निकाले गए और अपने बचाव में चौबे जी की शिक्षाओं का मैं कतई लाभ न उठा सका।
सबसे पहले शब्दावली। अन्य किसी भी पेशे की तरह जेबतराशी या पॉकेटमारी के काम में भी जमीनी काम करने वाले 'लड़के' ही कहलाते हैं। यह काम इस धंधे की सबसे निचली पायदान समझा जाता है और उस्ताद लोग इससे अपना लगाव पुलिस को डील करने के स्तर का ही रखते हैं। बदले में उनके इलाके का हर जेबकतरा अपनी डेली कमाई का दस फीसदी पूरी ईमानदारी से उनके पास पहुंचा देता है। चौबे जी का कहना था कि अब से बत्तीस साल पहले उन्होंने पटना में यह काम शुरू किया था। दस-बारह साल इसे किया। तीन-चार बार भीड़ की पकड़ में आए फिर भी हाथ-पैर सही-सलामत रहे। सिर्फ एक बार थाने में जाना पड़ा, जहां से उस्ताद ने उस जमाने में तीन सौ रुपया देकर उन्हें छुड़ाया। इतनी कदर उस छोटी-सी उम्र में इस पेशे के अंदर उनकी थी।
चौबे जी की सबसे बड़ी तकलीफ यही थी कि बत्तीस साल तक क्राइम में रहने के बावजूद एक दिन के लिए भी उन्हें जेल की हवा नहीं खानी पड़ी और आज जिस जुर्म में जेल में पड़े हैं, वह उन्होंने किया ही नहीं है। मुझसे पूछा, 'क्या आपको लगता है कि मैं किसी का मर्डर कर सकता हूं?' मैंने कहा कि आखिर यह हुआ कैसे? उन्होंने बताया, 'गांव से मेरा न कुछ लेना न देना, दो दिन के लिए आया था, पड़ोस में किसी का मर्डर हुआ और कसान काढ़ने के लिए उसने मुझे नामजद कर दिया।'
'लड़कों' की दो किस्में होती हैं। दुबले-पतले, बिल्कुल नजर न आने वाले लड़के 'मशीन' का काम करते हैं। यानी जेब काटना, या सफाई से बटुआ पार करना। बाकी लड़के वक्त जरूरत 'ठेल' या 'खुपिया' का काम करते हैं। उनका काम होता है 'असामी' को ताड़ना, उसपर नजर रखना, झगड़ा करके या घेर-घार, ठेल-ठाल कर उसे बदहवास कर देना और 'काम' हो जाने पर अगल-बगल के लोगों को धौंस-दपट देकर 'मशीन' को सुरक्षित निकल जाने का मौका देना।
चौबे जी ने यह भी बताया था कि उन लोगों का सबसे ज्यादा जोर ऐसे 'असामियों' पर ही रहता है जो किसी वजह से दुखी, परेशान या गुस्से में होते हैं। ऐसे लोग बड़ी आसानी से अर्दब में आ जाते हैं और उन्हें जैसे चाहें वैसे नचाया जा सकता है।
चौबे जी ने जेब अगर सिर्फ दस-बारह साल ही काटी तो बाकी के बीस साल क्या उन्होंने भजन-पूजन करते गुजार दिए? जी नहीं, इसके बाद ही उन्होंने असली काम किया। असली काम क्या है? यह वह है, जिसे खुद उस्ताद लोग करते हैं। सभी बड़े शहरों में उनका ढांचा होता है। बैंकों, रेलवे स्टेशनों, बड़ी दुकानों वगैरह पर नजर रखने, सूचना देने और असामी को 'खरीदने-बेचने' का बाकायदा एक सिस्टम होता है, जिसपर अच्छा-खासा 'इस्टैब्लिशमेंट खर्च' आता है। चौबे जी के मुताबिक उनके पास हर महीने दुनिया भर की मुद्राएं डॉलर, येन, पाउंड, रियाल वगैरह काफी सारी आ जाती थीं, जिसे सही कीमत पर बेचने के लिए पैसे देकर एक साफ-सुथरा और पढ़ा-लिखा आदमी भी रखना पड़ता था।
हजारों दिलचस्प वाकये चौबे जी की जिंदगी में हुए थे जिनमें से दो-चार के किस्से उन्होंने मुझे सुनाए। इनमें से एक मैं बहुत मुख्तसर में आपके लिए दोहराता हूं। लहजा नहीं, सिर्फ बात चौबे जी की है-
'एक दिन सिलीगुड़ी से मेरे पास फोन आया- गौहाटी से एक असामी काफी माल लेकर चला है, लड़के कोशिश करते-करते थक गए लेकिन पता नहीं चला कि माल है कहां। तुरंत निकल पड़ो तो झाझा में गाड़ी मिल जाएगी, जितना हाथ लगे उसमें से रुपये पीछे सिर्फ दस पैसे दे देना। गाड़ी, डिब्बा, बर्थ नंबर सब बताया। टैक्सी लेकर मैं भागा तो झाझा में छूटते-छूटते किसी तरह गाड़ी पकड़ में आई। एसी डिब्बा था, टीटी को पैसे अलग देने पड़े। यानी असामी तक पहुंचने से पहले ही करीब डेढ़ हजार रुपये जेब से निकल गए। जाके बगल में खड़े हुए, असामी सो रहा था। समझ लीजिए कि झाझा से लेकर पटना तक चार-पांच घंटे लगातार जानने की कोशिश करता रहा कि माल कहां रखा है।
'पटना आते-आते सुबह होने लगी थी, सोचे जो खर्चा हुआ सो हुआ, अब छोड़ते हैं। उतरने से पहले ध्यान आया कि यह सीट पर इतना मोटा गद्दा बिछाकर क्यों सो रहा है। दबाकर टटोले तो गड्डी खुरखुराई। बड़ा गुस्सा आया। महीना भर पहले आसाम से बड़ी जोरदार 'लकड़ी' लाए थे। लकड़ी यानी उस्तरा। उसी से मारे जो खींच के गद्दा पर तो कर्रे-कर्र हो गया। हर-हर-हर-हर इतनी गड्डी गिरी कि हम तो एकदम उसके नीचे ही दब जैसे गए। इतने में मारवाड़ी उठकर चिल्लाने लगा।
'गनीमत थी कि गाड़ी तबतक चिरैयाटांड़ आ गई थी और रफ्तार उसकी बहुत धीमी हो गई थी। क्या करते, गड्डियां जहां की तहां छोड़कर भागे और सीधे कूदकर नीचे। अड्डे पर पहुंचे तो सिलीगुड़ी फोन मिलाए। बोला 'हस्साला, गद्दा में भरे था? खैर छोड़ो, जो गया सो गया।' हम बोले, मिला-विला कुछ नहीं, लेकिन जो डेढ़ हजार अपनी जेब से गया उसका क्या होगा? बोला, 'चलो, किसी दिन तुम्हारे लिए हम भी सबर कर लेंगे।'
मित्रों, चौबे जी का यह गुरुज्ञान हमारे-आप जैसे आम लोगों के ज्यादा काम तो नहीं आने वाला है क्योंकि उनकी शिक्षाओं को व्यवहार में उतार पाना साधारण जनों के बस की बात नहीं है। लेकिन इससे इतनी सीख तो ली ही जा सकती है कि अगर कहीं सफर पर निकलें तो अपनी तकलीफ, बदहवासी और गुस्सा कतई जाहिर न होने दें। और खुदा न ख्वास्ता, आपके साथ कोई हादसा हुआ है, पैसे लेकर निकलना जरूरी है और इतना स्थितिप्रज्ञ बनकर सफर करना आपके लिए संभव नहीं है तो पूरे सफर के दौरान बीच-बीच में चौबे जी का नाम स्मरण करते रहें। इससे और कुछ नहीं होगा तो कम से कम उनके हमपेशों के शातिरपने का ध्यान रखने में आपको थोड़ी मदद जरूर मिल जाएगी।
6 comments:
http://nestabob.blogspot.com
बहुत अनोखी पोस्ट.. जेबकतरे भी ब्लॉग लिखने लगे, उस दिन का सूरज तो अभी दूर है.. अभी तो आप के द्वारा दिखाए जीवन के अन्देखे पहलुओं से ही आनन्द लेना होगा.. लिया गया..
एक कहानी से काम नहीं चलेगा, दो-चार और सुनाइए...बहुत दिलचस्प है.
जय हो श्री चौबे जी की!!
काफी ज्ञानी टाईप महसूस कर रहा हूँ यह पोस्ट पढ़कर, वरना इस धंधे के अंदर की बात से अनजान ही जीवन व्यर्थ गुजर जाता. और बताईये न किस्से!!
सलाम चंदू भाई!
क्या खूब!
आप क्या टोटका बता राहे हैं पंडीजी. आपने तो अपनी ही जेब कटवा कर चौबे जी नाम भी हंसा दिया. थोडा सानिध्य का लाभ उठा कर कायदे से सीख लिया होता तो आदमी बन गए होते. नहीं की ध्यान से पढाई लिखाई तो अब भुगतिए. करिए चाकरी और ब्लागीयेये दास्तानें.
Post a Comment